26 मार्च 2009

कुछ नवगीत


नवगीत की पाठशाला में जो नवगीत मिले हैं उन्हें ज्यों का त्यों यहाँ दिया जा रहा है। कुछ नवगीत बिना किसी नाम के भी मिले हैं उन्हें नहीं दिया जा रहा है। जो भी नवगीत भेजें उनके साथ अपना नाम अवश्य लिखें। इन नवगीतों को बाद में समीक्षा के साथ दिया जाएगा।

- संपादक

*****************************
पतझड़ की पगलाई धूप

भोर भई जो आँखें मींचे

तकिया को सिरहाने खींचे

लोट गई इक बार पीठ पर

ले लम्बी जम्हाई धूप !

अनमन सी अलसाई धूप !!

पोंछ रात का बिखरा काजल

सूरज नीचे दबा था आंचल

खींच अलग हो दबे पैर से

देह आँचल सरकाई धूप !

यौवन ज्यों सुलगाई धुप !!

फुदक फुदक खेले आंगन भर

खाने-खाने एक पांव पर

पत्ती-पत्ती आंख मिचौली

बचपन सी बौराई धूप !

पतझड़ की पगलाई धूप !!

-मानोशी

***************

हो दूर मुझ से, मेरे मन रे !

जिस पात्र में है भोग बनता

हरि-चरण पे वह न चढ़ता

सत्य जीवन के समझ ले

फिर चाहे जिस भी अगन चढ़ ले

चाहे जितने गीत गढ़ ले !

तप्त लोहा, ऊष्ण कंचन

दग्ध कण्ठ और प्रज्जवलित मन

पाषाण को ये प्रिय, समझ ले

फिर चाहे जो अभिशाप सर ले

हो दूर मुझ से, मेरे मन रे !

हो दूर मुझ से, मेरे मन रे !

-शार्दुला

***********************8

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .........

    जवाब देंहटाएं
  2. मानोशी और शार्दूला जी के मन को मोहने वाली रचनाये हैं......
    बहूत ही सुन्दर..जीवन से भरी

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय कटारे जी,

    पतझड़ की धूप नवगीत को मैंने कुछ यूँ लिखा है- आपने पेस्ट करते समय जो दो अंतराओं के बीच में स्पेस दी है, वैसा मैंने नहीं सोचा था। कुछ यूँ है वो गीत-

    पतझड़ की पगलाई धूप

    भोर भई जो आँखें मींचे
    तकिये को सिरहाने खींचे
    लोट गई इक बार पीठ पर
    ले लम्बी जम्हाई धूप
    अनमन सी अलसाई धूप।

    पोंछ रात का बिखरा काजल
    सूरज नीचे दबा था आंचल
    खींच अलग हो दबे पैर से
    देह आँचल सरकाई धूप
    यौवन ज्यों सुलगाई धूप॥

    फुदक फुदक खेले आंगन भर
    खाने-खाने एक पांव पर
    पत्ती-पत्ती आंख मिचौली
    बचपन सी बौराई धूप
    पतझड़ की पगलाई धूप॥

    आपके समीक्षा के इंतज़ार में हूँ।

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है। कृपया देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करें।