टूट गया दिन
बिखरा सब संध्या तक आते।
सूना आँगन फैली किरचें।
डरे बसेरा घुप्प अँधेरा।
हाथ लकीरें किसे दिखाएँ?
सिहरी देहरी चुभते हैं पिन।
टूट गया दिन
झीनी साड़ी खड़े दुशासन।
ठंडा चूल्हा चौका बासन।
छज्जे तक आ गई रूलाई।
कटती पाखें नहीं बताई।
साँसें चलतीं पल-पल को गिन।
टूट गया दिन
धुँधला धुँधला आर पार तक।
उलझ गए हैं चौराहों पर।
बिखरे रिश्ते बिखरे नाते।
बिखरे बिखरे से हैं तन मन।
कौन समेटे बैठा है जिन।
टूट गया दिन
-निर्मला जोशी
झीनी साड़ी खड़े दुशासन।
जवाब देंहटाएंठंडा चूल्हा चौका बासन।
छज्जे तक आ गई रूलाई।
कटती पाखें नहीं बताई
इन पंक्तियों के बारे में क्या कहूं...
निर्मला जी आपने ये पंक्तियाँ जो लिखी हैं वो पूरी रचना बेहतरीन हैं...
बहुत ही बढ़िया रचना है जिसके लिए आप ढेर सारी बधाई की हकदार हैं...
नवगीत बेहद ही अच्छे पढने को मिल रहे हैं..
मीत
सूना आँगन फैली किरचें।
जवाब देंहटाएंडरे बसेरा घुप्प अँधेरा।
हाथ लकीरें किसे दिखाएँ?
सिहरी देहरी चुभते हैं पिन।
टूट गया दिन
बहुत अच्छा लिखा, बहुत बहुत बधाई, धन्याद
विमल कुमार हेडा
सुंदर नवगीत, निर्मला जोशी जी ने यहाँ पूरा वाक्यांश नहीं लिया है जो दिया गया था लेकिन उस वाक्यांश का आशय खूब अच्छी तरह से व्यक्त हुआ है। लगता है कि किसी शब्द या वाक्यांश को कविता में रहने की बाध्यता न हो तो बेहतर रचनाएँ मिल सकती हैं। एक बेहद सुंदर रचना के लिए ढेर सी बधाई।
जवाब देंहटाएंनवगीत की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला यह गीत कथ्य में नवीनता लिये हुए पूर्ण लयबद्ध है। अच्छे नवगीत के लिये निर्मला जी को कोटिशः बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत् अच्छी रचना । बधाई ।
जवाब देंहटाएंशशि पाधा