17 सितंबर 2009

१२- वो रात फिर आ गई

वो रात फिर आ गई

घनघोर तम
निस्तेज तन
अनुपम छटा
हर ओर छा गई
नेह के मोती पिरोती
वो रात फिर आ गई

बिखरे पड़े
घन‍‍‌‍‍‍ केश
घुल रहा
संताप है
प्रेम के नवगीत गाती
वो रात फिर आ गई

अलसित धरा
ताके गगन
बस में नही
चंचल मन
अम्बर धरा के मिलन की
वो रात फिर आ गई

--दीपा जोशी

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही उम्दा कविता । बहुत-बहुत बधाई

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  2. घनघोर तम
    निस्तेज तन
    अनुपम छटा
    हर ओर छा गई
    नेह के मोती पिरोती
    वो रात फिर आ गई

    एक अच्छी कविता के लिए बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद

    विमल कुमार हेडा

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  3. रात्रि का भी इतना बढिया वर्णन .. अच्‍छा लगा !!

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  4. रात का यह चित्रण इस नवगीत को बहुत सुंदर बना गया...
    बधाई स्वीकारें...
    मीत

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  5. बिखरे पड़े
    घन‍‍‌‍‍‍ केश
    घुल रहा
    संताप है
    प्रेम के नवगीत गाती
    वो रात फिर आ गई
    khoob likha hai
    saader
    rachana

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  6. दीपा जी ,
    रात की मनोव्यथा का इतना सुन्दर वर्णन ।
    बधाई।
    शशि पाधा

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  7. बिखरे पड़े
    घन‍‍‌‍‍‍ केश
    घुल रहा
    संताप है
    प्रेम के नवगीत गाती
    वो रात फिर आ गई .....
    saNtaap ka ghul jana apneaap meiN sukhad hai geet har tarah se achcha laga

    जवाब देंहटाएं
  8. बिखरे पड़े
    घन‍‍‌‍‍‍ केश
    घुल रहा
    संताप है
    प्रेम के नवगीत गाती
    वो रात फिर आ गई
    sunder upmaon aur shabdon ka snyojan hai
    bahut sunder
    rachana

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