16 दिसंबर 2011

१६. शरद की जुन्हाई

अब शरद की जुन्हाई न परखो सखे
अब प्रकृति की लुनाई न ढूँढो सखे

ये शिशिर की ठिठुरती हुयी साँझ है-
पात पीले पड़े
डार सूनी हुईं
ये सिहरन, ये टप-टप, धुधलका, कुहासा
नियति रच रही नित्य नूतन तमाशा
सूर्य की अरुणिमा में ये क्या घुल गया-
दिन सुनहरे हुये
रात भी सुरमयी
है आहट ये माधमास-आगम सखे
औ' नये वर्ष का शुभ समागम सखे

फिर गमकने लगेंगे धरा और गगन-
पात फिर आयेंगे
डार होगी हरी
बाग वन वाटिका खेत बारी मगन
फिर मलय-गंध-युत होगा सन-सन पवन
गूँज कोयल की कुहकन की फैलेगी जब-
आम बौराएँगे
फाग होंगे कहीं
झाँकते ज्यों चुनर से हों 'गेसू' सखे
वस्त्र काशाय ओढेंगे टेसू सखे

-अनिल वर्मा
लखनऊ से

8 टिप्‍पणियां:

  1. झाँकते ज्यों चुनर से हों 'गेसू' सखे
    वस्त्र काशाय ओढेंगे टेसू सखे

    वाह... कितना सुंदर...

    क्या मैं इतनी स्तरीय कविता कभी भी लिख सकूँगा?!?

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  2. बहुत सुंदर नवगीत है, अनिल वर्मा जी को बहुत बहुत बधाई

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  3. "वस्त्र काषाय ओढेगेटेसू सखे "
    बहुत प्यारीपंक्ति |अच्छी लगी यह रचना |

    आशा

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  4. उन्नत भाषा शैली समेटे विचार ..

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  5. उत्तम द्विवेदी18 दिसंबर 2011 को 4:08 pm बजे

    ये शिशिर की ठिठुरती हुयी साँझ है-
    पात पीले पड़े
    डार सूनी हुईं
    ये सिहरन, ये टप-टप, धुधलका, कुहासा
    नियति रच रही नित्य नूतन तमाशा
    सूर्य की अरुणिमा में ये क्या घुल गया-
    दिन सुनहरे हुये
    रात भी सुरमयी
    है आहट ये माधमास-आगम सखे
    औ' नये वर्ष का शुभ समागम सखे
    -- बहुत ही खुबसूरत, मन को गुनगुनाने वाले नवगीत के लिए वर्मा जी को बहुत-बहुत बधाई!

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