बिन शाखाओं
के देखो तो
बूढ़ा पीपल फफक रहा है
नहीं वृक्ष ने कुछ चाहा वो
जीवन देते आये हैं
काट उन्हें करते अपंग हम
कैसे अपने साये हैं
ठूँठ हुए हैं
बरगद पंछी कहाँ बनाएं बसेरे अब
चींचीं कर जो
मन बहलाते हमने खोये सवेरे अब
चली आरियां
इतनी देखो
खून डाल से टपक रहा है
भारी पाँव प्रदूषण के हैं
वृक्ष यहां कम होते हैं
श्वासों के दरबार में देखो
केवल अब गम होते हैं
हरियाली बौनी
होकर के गमलों में अब सोती हैं
छाँव नहीं है
दूर दूर तक पथ की अँखियाँ रोती हैं
पथिक पसीने
से लथपथ है
तपता सूरज पलक रहा है
वृक्ष नहीं केवल फल देते
दवा इन्हीं से बनती है
चूल्हे को ईंधन देते ये
रोटी जिस से पकती है
चलो चलें फिर
वृक्ष लगाएं हरयाली से बातें हों
बाढ़ल भैया
रुककर जाएँ बारिश की सौगातें हों
सुंदर जीवन
का सपना लो
फिर धरती पर गमक रहा है । ।
गीता पंडित
नई दिल्ली
के देखो तो
बूढ़ा पीपल फफक रहा है
नहीं वृक्ष ने कुछ चाहा वो
जीवन देते आये हैं
काट उन्हें करते अपंग हम
कैसे अपने साये हैं
ठूँठ हुए हैं
बरगद पंछी कहाँ बनाएं बसेरे अब
चींचीं कर जो
मन बहलाते हमने खोये सवेरे अब
चली आरियां
इतनी देखो
खून डाल से टपक रहा है
भारी पाँव प्रदूषण के हैं
वृक्ष यहां कम होते हैं
श्वासों के दरबार में देखो
केवल अब गम होते हैं
हरियाली बौनी
होकर के गमलों में अब सोती हैं
छाँव नहीं है
दूर दूर तक पथ की अँखियाँ रोती हैं
पथिक पसीने
से लथपथ है
तपता सूरज पलक रहा है
वृक्ष नहीं केवल फल देते
दवा इन्हीं से बनती है
चूल्हे को ईंधन देते ये
रोटी जिस से पकती है
चलो चलें फिर
वृक्ष लगाएं हरयाली से बातें हों
बाढ़ल भैया
रुककर जाएँ बारिश की सौगातें हों
सुंदर जीवन
का सपना लो
फिर धरती पर गमक रहा है । ।
गीता पंडित
नई दिल्ली