काट रहे सब, डाल वही
हैं बैठे जिसको थाम।
बूढ़ा बरगद सोच रहा
दिन कैसे आये राम।
बाग, फूल, तितली
बसंत से रंग हुआ गायब
झूठे बादल
लेकर आता है अषाढ़ भी अब
बाढ़, अकाल, भुखमरी का
ॠतुयें लातीं पैगाम।
भूमि, भाव की सूखी
उड़ती है स्वारथ की रेत
प्रगतिवाद के सांड़
खा गये नैतिकता के खेत
उगे अर्थ के 'हट'
परार्थ के पीपल हुये धड़ाम।
पर्वत नंगा हुआ
सूख कर नदी हुई निर्जल,
सुविधा के घर लील गये
हरियाली के जंगल,
एक-एक कर विदा हो रहे
महुआ, जामुन, आम।
- कृष्ण नन्दन मौर्य
प्रतापगढ़
हैं बैठे जिसको थाम।
बूढ़ा बरगद सोच रहा
दिन कैसे आये राम।
बाग, फूल, तितली
बसंत से रंग हुआ गायब
झूठे बादल
लेकर आता है अषाढ़ भी अब
बाढ़, अकाल, भुखमरी का
ॠतुयें लातीं पैगाम।
भूमि, भाव की सूखी
उड़ती है स्वारथ की रेत
प्रगतिवाद के सांड़
खा गये नैतिकता के खेत
उगे अर्थ के 'हट'
परार्थ के पीपल हुये धड़ाम।
पर्वत नंगा हुआ
सूख कर नदी हुई निर्जल,
सुविधा के घर लील गये
हरियाली के जंगल,
एक-एक कर विदा हो रहे
महुआ, जामुन, आम।
- कृष्ण नन्दन मौर्य
प्रतापगढ़
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