7 सितंबर 2014

९. बिन शाखाओं के - गीता पंडित

बिन शाखाओं
के देखो तो
बूढ़ा पीपल फफक रहा है

नहीं वृक्ष ने कुछ चाहा वो
जीवन देते आये हैं
काट उन्हें करते अपंग हम
कैसे अपने साये हैं

ठूँठ हुए हैं
बरगद पंछी कहाँ बनाएं बसेरे अब
चींचीं कर जो
मन बहलाते हमने खोये सवेरे अब

चली आरियां
इतनी देखो
खून डाल से टपक रहा है

भारी पाँव प्रदूषण के हैं
वृक्ष यहां कम होते हैं
श्वासों के दरबार में देखो
केवल अब गम होते हैं

हरियाली बौनी
होकर के गमलों में अब सोती हैं
छाँव नहीं है
दूर दूर तक पथ की अँखियाँ रोती हैं

पथिक पसीने
से लथपथ है
तपता सूरज पलक रहा है

वृक्ष नहीं केवल फल देते
दवा इन्हीं से बनती है
चूल्हे को ईंधन देते ये
रोटी जिस से पकती है

चलो चलें फिर
वृक्ष लगाएं हरयाली से बातें हों
बाढ़ल भैया
रुककर जाएँ बारिश की सौगातें हों

सुंदर जीवन
का सपना लो
फिर धरती पर गमक रहा है । ।

गीता पंडित
नई दिल्ली

6 सितंबर 2014

८. काट रहे सब डाल - कृष्णनंदन मौर्य

काट रहे सब, डाल वही
हैं बैठे जिसको थाम।
बूढ़ा बरगद सोच रहा
दिन कैसे आये राम।

बाग, फूल, तितली
बसंत से रंग हुआ गायब
झूठे बादल
लेकर आता है अषाढ़ भी अब
बाढ़, अकाल, भुखमरी का
ॠतुयें लातीं पैगाम।

भूमि, भाव की सूखी
उड़ती है स्वारथ की रेत
प्रगतिवाद के सांड़
खा गये नैतिकता के खेत
उगे अर्थ के 'हट'
परार्थ के पीपल हुये धड़ाम।

पर्वत नंगा हुआ
सूख कर नदी हुई निर्जल,
सुविधा के घर लील गये
हरियाली के जंगल,
एक-एक कर विदा हो रहे
महुआ, जामुन, आम।

- कृष्ण नन्दन मौर्य
प्रतापगढ़

७. जंगलों में - कल्पना रामानी

सोच में डूबा हुआ मन
जब उतरता जंगलों में।
वे हरे जीवन भरे दिन
याद करता जंगलों में।

कल जहाँ तरुवर खड़े थे
ठूँठ दिखते उस जगह।
रात रहती है वहाँ केवल
नहीं होती सुबह।
और कोई एक दीपक
भी न धरता जंगलों में।

घर से ले जातीं मुझे थीं
जो वहाँ पगडंडियाँ।
अब चुरातीं हैं नज़र
कैसे करें हालत बयाँ
है पता मुझको मगर
हर प्राण डरता जंगलों में।

देखती थी मुग्ध हरियल
पेड़ लहराते हुए।
स्वर्ण आभा प्रात की
औ’ साँझ गहराते हुए।
क्या हसीं मोहक नज़ारा
था उभरता जंगलों में।

अब कहाँ प्यारे परिंदे
वनचरों का कारवाँ।
निर्दयी हाथों ने जिनका
रौंद डाला आशियाँ।
खौफ ही बेखौफ होकर
अब विचरता जंगलों में।

- कल्पना रामानी
मुंबई