अनचाहे पाहुन से
गर्मी के दिन।
व्याकुल मन घूम रहा-
बौराये-
बौराये
सन्नाटा पसरा है-
चौराहे
-चौराहे
चुभो रही धूप यहाँ,
तन मन में पिन।
गर्मी से अकुलाये,
गर्मी के दिन।
छाया को तरसे खुद,
जेठ की दुपहरी है।
हवा हुई सत्ता सी,
गूँगी औ॔' बहरी है।
कैसे अब वक़्त कटे,
अपनों के बिन।
आख़िर क्यों आये ये,
गर्मी के दिन।
वोटों के सौदागर,
दूर हुए मंचों से।
जनता को मुक्ति मिली,
तथाकथित पंचों से।
आँखों में तैर रहे,
सपने अनगिन।
गंध नयी ले आये,
गर्मी के दिन।
--संजीव गौतम
(मूल शीर्षक बदलने के लिए क्षमायाचना, ऐसा करना पड़ा क्यों कि एक गीत पहले ही गर्मी के दिन शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है)
गर्मी के दिन।
व्याकुल मन घूम रहा-
बौराये-
बौराये
सन्नाटा पसरा है-
चौराहे
-चौराहे
चुभो रही धूप यहाँ,
तन मन में पिन।
गर्मी से अकुलाये,
गर्मी के दिन।
छाया को तरसे खुद,
जेठ की दुपहरी है।
हवा हुई सत्ता सी,
गूँगी औ॔' बहरी है।
कैसे अब वक़्त कटे,
अपनों के बिन।
आख़िर क्यों आये ये,
गर्मी के दिन।
वोटों के सौदागर,
दूर हुए मंचों से।
जनता को मुक्ति मिली,
तथाकथित पंचों से।
आँखों में तैर रहे,
सपने अनगिन।
गंध नयी ले आये,
गर्मी के दिन।
--संजीव गौतम
(मूल शीर्षक बदलने के लिए क्षमायाचना, ऐसा करना पड़ा क्यों कि एक गीत पहले ही गर्मी के दिन शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है)
अनचाहे पाहुन पढ़ कर लगा , हम सच में गर्मी के माहौल में व्याकुलता का अनुभव कर रहे हों.
जवाब देंहटाएंचुभो रही धूप यहाँ,
तन मन में पिन।
और
हवा हुई सत्ता सी,
गूँगी औ॔' बहरी है।
सच ऐसे ही बिम्बों का प्रयोग कर नवगीतों को सार्थकता प्रदान की जा सकती है.
रचना सुन्दर बन पड़ी है.
-विजय
अच्छी रचना। वाह।
जवाब देंहटाएंसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
गर्मी के दिन बिना बुलाये पाहुन की तरह आ ही जाते हैं। बहुत सुन्दर ढँग से शुरुआत की है नवगीत की।---
जवाब देंहटाएंअनचाहे पाहुन से
गर्मी के दिन।
0000000000000000
विहारी की पंक्तियाँ याद आ रही हैं ये पढ़कर--
""छाया को तरसे खुद,
जेठ की दुपहरी है।""
ऐसी ही गर्मी को देखकर और महसूस कर कभी विहारी ने लिखा था--
"देख दुपहरी जेठ की, छाँहौं चाहति छाँह।
यहाँ नवगीत के रचनाकार ने हवा के नदारत होने का जो उदाहरण दिया है वह बहुत प्रभावशाली पंक्तियाँ हैं जो सार्थक तो हैं ही इसके अतिरिक्त कवि के लिए आवश्यक "कवि उद्देश्य" का निर्वहन भी कवि ने बहुत कुशलता के साथ "हवा हुई सत्ता सी,गूँगी औ॔' बहरी है।" किया है।
नवगीतकार को ढेर सारी वधाई।
बहुत सुंदर नवगीत, जिसमें गर्मी के दिनों का वर्णन सत्ता के माध्यम से बहुत ही सार्थक रूप से किया है। कविता तो है ही सशक्त विचार भी है। ऐसी ही कविताएँ समाज को बदलने में सहायक होती हैं। ढेरों बधाई और अनेक शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंयह एक पूर्णतः सधी हई लय वाला नवगीत है ,कुछ नये प्रयोगों ने इसे और अधिक सुन्दर बना दिया है।
जवाब देंहटाएं" चुभो रही धूप यहाँ,
तन मन में पिन। "
"छाया को तरसे खुद,
जेठ की दुपहरी है। " लय और कथ्य की दृष्टि से यह पूर्ण अनुशासित नवगीत की श्रेणी में आता है।
छाया को तरसे खुद,
जवाब देंहटाएंजेठ की दुपहरी है।
हवा हुई सत्ता सी,
गूँगी औ॔' बहरी है।
नवगीत बहुत ही अच्छा, ये पंक्तियाँ खास कर अच्छी लगी..
बहुत बधाई...
अत्यंत सुंदर नवगीत! प्रकृति चित्रण और तमाम यथार्थ के बावजूद आशा की जो सुंदर किरण अंत की चार पंक्तियों में है वह कविता की जान है-
जवाब देंहटाएंआँखों में तैर रहे,
सपने अनगिन।
गंध नयी ले आये,
गर्मी के दिन।
सलाम इन पंक्तियों को और बधाई रचनाकार को।
पाहुन शब्द ही अपने आप में इतना मनमोहक की शुरूआत में गीत बाँध लेता है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर गीत...
खूबसूरत लय भी!
वाह ...
जवाब देंहटाएंअनचाहे पाहुन से गर्मी के दिन नवगीत की
सभी पँक्तियाँ पसँद आयीँ
- लावण्या
छाया को तरसे खुद,
जवाब देंहटाएंजेठ की दुपहरी है।
हवा हुई सत्ता सी,
गूँगी औ॔' बहरी है।
खुद व्यबस्था पर और उसकी वेबसी पर गंभीर चोट.
बहुत सुंदर नवगीत-गीत बाँध लेता है।
जवाब देंहटाएंbahut hi badhiyaa..........
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