3 सितंबर 2009

३- जीवन मेरा बिखरा पड़ा है

जोड़ दे आ के मुझे, जीवन मेरा बिखरा पड़ा है।

शब्द बेतरतीब हैं, बिखरी हुई है भावना
कल्पना का साथ छूटा, और टूटी कामना
स्वप्न बिखरे, यादें बिखरीं, मन मेरा बिखरा पड़ा है
जोड़ दे आ के मुझे, जीवन मेरा बिखरा पड़ा है।

दोपहर की धूप बिखरी, शान्ति बिखरी रात की
छंद बिखरे प्रीति के, लाली है बिखरी प्रात की
एक ठोकर से तेरी, कन कन मेरा बिखरा पड़ा है
जोड़ दे आ के मुझे, जीवन मेरा बिखरा पड़ा है।

तन की है दीवार टूटी, और छूटी अर्चना
आत्मा तू ले गयी, कैसे करूँ मैं वन्दना
तोड़ कर जब से गयी तू, दिल मेरा बिखरा पड़ा है
जोड़ दे आ के मुझे, जीवन मेरा बिखरा पड़ा है।

साँस की है ड़ोर टूटी, और बिखरी आस भी
प्रेम की अनुभूति छूटी, झूठ सी ये जिंदगी
छोड़ कर जब से गयी तू, प्राण ये बिखरा पड़ा है
जोड़ दे आ के मुझे, जीवन मेरा बिखरा पड़ा है।

धर्मेन्द्र कुमार सिंह `सज्जन'

7 टिप्‍पणियां:

  1. शब्द बेतरतीब हैं, बिखरी हुई है भावना
    कल्पना का साथ छूटा, और टूटी कामना
    स्वप्न बिखरे, यादें बिखरीं, मन मेरा बिखरा पड़ा है
    जोड़ दे आ के मुझे, जीवन मेरा बिखरा पड़ा है।
    वाह क्या गीत लिखा है, बार बार पढ़ने को जी चाहता है बहुत ही सुन्दर गीत, बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद

    विमल कुमार हेडा

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  2. दोपहर की धूप बिखरी, शान्ति बिखरी रात की
    छंद बिखरे प्रीति के, लाली है बिखरी प्रात की
    एक ठोकर से तेरी, कन कन मेरा बिखरा पड़ा है
    वाह मान गये धर्मेंद्र जी क्‍या लिखा है आपने...

    बहुत खूब बयां किया है....

    मीत

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  3. धर्मेश जी! अच्छा नवगीत है ।

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  4. जीवन के बिखराव को दर्शाती बहुत सार्थक रचना

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  5. बहुत सुंदर गीत है धर्मेन्द्र जी, हाँलाँकि नव गीत के तत्व, नई उपमाएँ, नए बिम्ब, ऩया कथन इसमें दिखाई नहीं दिए तो भी एक सुंदर प्रेमगीत के लिए रचनाकार को बधाई।

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  6. बहुत बहुत धन्यवाद मुक्ता जी। अगर आप टिप्पिणी न करतीं तो मैं सदा ही गीत लिखक्रर उसे नवगीत समझता रहता।

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