10 मई 2010

१२ : ठिठक रही रात : उत्तम द्विवेदी

ठिठक रही रात ए देखो
भोर होगी ...
कह नहीं सकता।

महुआ यूँ टपक पडे. कब
सर पर कोई आग–गोला
भयातुर हो ममता डोले
न छोडे हैं अब हाथ पिया
रेल पटरियों से थर्राते
ड्योढ़ी आगे बढ़ते पग
लौट फिर आयेंगे अँगने
कह नहीं सकता। ठिठक ...

घने अँधेरे में दिखता
आशा का एक लघु तारा
तभी घूमती उस पर एक
काल छाया छा जाती है
स्याह देह पर दिखता है
काले तिल जैसा हर यत्न
तम छाँट सूरज चमकेगा
कह नहीं सकता। ठिठक ...

सिर झुलाने से न होगा,
शिराओं सा आतंकी रक्त
बनाना है धमनीय हमें
अमावस से एक–एक पल
रात पूनम की करना है
उत्तम बदलाव होगा ही
असत्य कभी सत्य का वार
सह नहीं सकता। ठिठक ...
--
उत्तम द्विवेदी
मुंबई, महाराष्ट्र (भारत)

6 टिप्‍पणियां:

  1. एक अच्छी रचना पर बधाई

    http://sanjaykuamr.blogspot.com/

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  2. खूबसूरत एहसास ...पूनम की रात करनी ही होगी....बहुत बढ़िया

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  3. विमल कुमार हेड़ा11 मई 2010 को 9:08 am बजे

    सुन्दर रचना के लिये बहुत बहुत बधाई,
    धन्यवाद
    विमल कुमार हेड़ा

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  4. सिसक रहे ज़ज्बात ये देखो.
    सांत्वना?
    दे नहीं सकता.

    टंसुआ कब टपक पड़े
    बनके तप्त शोला?
    अमृत में ज़हर घुला
    कैसे कहूँ पिया?
    रिश्ते रिस ते, न भाते
    नाते कैसे निभाते?
    हाथ में हँस हाथ अब
    मैं ले नहीं सकता...

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  5. मन को सांत्वना देने वाली रात भी जब सिसकने लगे और आतंक की ज्वाल से दिवस भी पिघलने लगे तो धरती की व्यथा को कौन सुनेगा/हरेगा ? धन्यवाद एक अच्छी रचना के लिये ।

    शशि पाधा

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