12 मई 2010

१४ : कुछ इस क़दर : रचना श्रीवास्तव

सन्नाटे सिमट के राहों में आये,
बीज अंकुरित होने से घबराये।
कोख में बच्चे को
सिमटा पाया है,
कुछ इस क़दर
आतंक का साया है।

पेड़ों ने तजे पात
लाज उनकी बचाने को,
फूलों ने समेट ली सुगंध
टूटने से बच जाने को।
चिड़ियों को भी यहाँ
फुसफुसाता पाया है
कुछ इस क़दर
आतंक का साया है।

साँझ डरती
धरा
पर आने से,
चाँद ने मना किया
गुनगुनाने से।
सूरज अंधेरों से
घबराया है,
कुछ इस क़दर
आतंक का साया है।
--
रचना श्रीवास्तव

6 टिप्‍पणियां:

  1. पेड़ों ने तजे पात
    लाज उनकी बचाने को,
    फूलों ने समेट ली सुगंध
    टूटने से बच जाने को।
    चिड़ियों को भी यहाँ
    फुसफुसाता पाया है
    कुछ इस क़दर
    आतंक का साया है।
    bahut khoob dar ka chitran bahut achchhe se kiya hai

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  2. विमल कुमार हेडा़13 मई 2010 को 8:20 am बजे

    सुन्दर गीत के लिये रचना जी को बहुत बहुत बधाई
    धन्यवाद।
    विमल कुमार हेडा़

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  3. आतंक के साये का बहुत अच्छा चित्रण किया है ...अच्छा गीत है

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  4. जड़ और चेतन दोनों ही भय से कहीं सिमट गये हैं और आतंक का साया सब पर छाया है । बहुत अच्छी रचना है रचना जी । धन्यवाद ।
    शशि पाधा

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  5. सब पर आतंक का साया,
    कुछ इस क़दर छाया है
    सूरज अंधेरों से घबराया है,
    :
    खूब लिखा है, अच्छा है.

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  6. डरते आकारों से उनके साये.
    देख भवन ऊँचे नीवें घबराएँ.
    कंकर से शंकर
    डरकर घबराया है.
    चंदा को तारों ने
    मिलकर धमकाया है.

    रचना को रचना से
    होती है घबराहट.
    गायन से गुम होती
    सुर-लय की क्यों चाहत?
    वाद्यों का कर्कश स्वर
    दस दिश में छाया है.
    न्याय प्रशासन शासन
    गायब सा पाया है.

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