25 जुलाई 2010

०९ : कीच पर जो मिट गया : धर्मेन्द्र कुमार सिंह "सज्जन"

इक कमल था
कीच पर जो मिट गया

लाख आईं तितलियाँ
ले पर रँगीले
कई आये भौंर
कर गुंजन सजीले
मंदिरों ने याचना की सर्वदा
देवताओं ने चिरौरी की सदा,
साथ उसने
पंक का ही था दिया
इक कमल था
कीच पर जो मिट गया

कीच की सेवा
थी उसकी बंदगी
कीच की खुशियाँ
थीं उसकी जिंदगी
कीच के दुख दर्द में वह संग खड़ा
कीच के उत्थान की ही जंग लड़ा
कीच में ही
सकल जीवन कट गया
इक कमल था
कीच पर जो मिट गया

एक दिन था
जब कमल मुरझा गया
कीच ने
बाँहों में तब उसको लिया
प्रेम-जल को उस कमल के बीज पर
पंक ने छिड़का जो नीची कर नज़र
कीच सारा
कमल ही से पट गया
इक कमल था
कीच पर जो मिट गया।
--
धर्मेन्द्र कुमार सिंह "सज्जन"

5 टिप्‍पणियां:

  1. वाह !

    प्रेम-जल को उस कमल के बीज पर
    पंक ने छिड़का जो नीची कर नज़र
    कीच सारा
    कमल ही से पट गया

    वाह !
    धन्य है!

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  2. उत्तम द्विवेदी26 जुलाई 2010 को 1:57 pm बजे

    बहुत ही ख़ूबसूरत! शिल्प के साथ भाव भी बहुत खुबसूरत व अनुकरणीय है...
    कोई मनुज हो जो कमल बन
    कीच पर ही मिट जाए
    छोड़ कर खुशियों के
    सपने रंगीले
    तोड़ कर मोह-माया के बंधन कंटीले
    कीच के उत्थान पर जो मर मिटे
    जिससे लिपट कर
    कीच की
    कीचता सिमट जाए
    कोई मनुज हो जो कमल बन
    कीच पर ही मिट जाए.
    एक अच्छे नवगीत के लिए बधाई!

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  3. ’एक कमल था कीच पर जो मिट गया’

    यही तो “ातदल की सुजनता है सज्जनजी!
    जीने मरने की कसम निभाए जाता है।
    फिर भी खुषियां लुटाए जाता है ।
    काष!कमल की यह कमनीयता,
    उसकी यह नमनीयता, हमारे पास भी होती।
    नवीन छंद से प्रवाहमान इस नवगीत को
    हम सलाम करते हैं।
    धन्यवाद!

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  4. बहुत सुंदर और नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है धर्मेन्द्र जी आपने कमल के पक्ष में। कथ्य रोचक है कुछ कुछ शमा और परवाने के अंदाज़ में। शिल्प के सुंदर प्रयोग से आपने इसे सजाया है। बधाई और शुभ कामनाएँ।

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  5. एक और सराहनीय प्रस्तुति... कमल से सम्बंधित एक नए आयाम ने मन को आनंदित किया.

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