5 अक्तूबर 2010

१८. आ गया दालान तक पानी : डॉ.सुभाष राय

मेघ आए
हम चलें भीगें कि
अपना घर बचाएँ
नींव है कमजोर
डर है ढह न जाए

प्यास से जब कंठ सूखे
गाँव के, बरसे न ये घट
आदमी जैसे भरोसा
खो चुके हैं नीर के नट
हो गए हैं अर्थ
ऋतुओं के निरर्थक
जिंदगी के गीत रूठे
किस तरह गाएँ

आ गया दालान तक
पानी गली को पारकर
एक चादर थी, हुई गीली
न सोया हारकर
बिस्तरे, बर्तन हुए हैं
नाव, आँगन ताल
डूबकर इसमें जिएँ
या डूब जाएँ

दर्द के झूले, अभावों ने
रची कजरी हमारी
जेठ सावन पर हमेशा
ही पड़ी है भूख भारी
जागना जिनको वही
सोए हुए हैं तानकर
मेह बरसे आग
शायद जाग जाएँ

बहुत गहरे एक बादल
गरजता मेरे हृदय में
उठ रहा तूफान बनकर
हौसले जैसा प्रलय में
बाढ़ दुख की बह चली तो
रोक पाएगा न कोई
और कब तक हम सहें
वे जुल्म ढाएँ
--
डॉ. सुभाष राय
ए-१५८, एम आई जी, शास्त्रीपुरम, बोदला रोड, आगरा (उ.प्र.)
फ़ोन-०९९२७५००५४१

21 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सटीक और सार्थक कविता ..सारे दृश्यों का बखूबी वर्णन करती हुयी

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  2. बहुत गहरे एक बादल
    गरजता मेरे हृदय में
    उठ रहा तूफान बनकर
    हौसले जैसा प्रलय में
    बाढ़ दुख की बह चली तो
    रोक पाएगा न कोई
    और कब तक हम सहें
    वे जुल्म ढाएँ

    सुभाष जी को पढना हमेशा सुखकर लगा ...कविता हो या नवगीत इनकी रचनायें हमेशा प्रभावित करतीं हैं ....प्रलय के बीच हौसला बनाते हुए ये अपना रास्ता खुद बनाते हैं .....बधाई इन्हें ....!!

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  3. navgeet jagat men teji se vibhinn bimbo aur sukshm anubhutiyon se navgeet ko awam tak pahuchane men samarth doctar subhash rai ka yah geet varsha ke madhyam se aaj ke paridrashy ko parilakshit karta hai. mujhe yah kavyansh bahut pasand aaye.
    प्यास से जब कंठ सूखे
    गाँव के, बरसे न ये घट
    आदमी जैसे भरोसा
    खो चुके हैं नीर के नट
    हो गए हैं अर्थ
    ऋतुओं के निरर्थक
    जिंदगी के गीत रूठे
    किस तरह गाएँ

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  4. sundar geet. aise daur mey jabki geet vidha hi hashiye par hai, tab navgeet kee pathashala laganaa anokha kaam hai. aur uss par subhash tay jaise geetkaar ko parhanaa aur sukhad lagaa.

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  5. aapne to navgeet aandolan ki yaad dila di. bhut hi pyara geet. bdhai.

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  6. kaun kahta hai ki geet mr rha hai jo is glt fhmi me hain unhe is site ko avshy kholna chahiye "aagya dalan tk pani "apne aap me ek abhoot poorv lybddh vishy ka nirvhn krti anokhi rchna hai
    bhai subhas ji hardik bdhai

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  7. बहुत ही सुन्दर, सार्थक नवगीत! हर पंक्ति जैसे चित्र खींचती सी!
    "नीर के नट"-- इतना सुन्दर प्रयोग!
    बस एक बात: अगर पहले पद में भी "अपने घर बचाएँ" या अन्य किसी बहुवचन का प्रयोग हो जाता तो पद के अंत में "जाएँ" आ जाता.
    एक बहुत सुन्दर नवगीत के लिए आपका आभार!
    सादर शार्दुला

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  8. डॉ. राय… आज आपकी कविता ने उद्वेलित ही नहीं किया, वरन् एक पुरानी घटना की स्मृति जीवित कर दी. मेरे पिता जी ने एक नया ख़ूबसूरत स्वेटर लाकर दिया था मुझे. स्वेटर इतना सुंदर था कि मरे मुँह से निकल गया कि भगवान करे, हमेशा जाड़े का मौसम ही रहे. तब पिता जी ने मुझे कहा कि यह मौसम तुमको अच्छा लगता है, इसलिए कि तुम्हारे पास ओढने बिछने को गर्म कपड़े हैं. लेकिन सोचो ज़रा कितने लोग खुले मैदान में सोते हैं, बिना बिस्तर. गर्मी तो नंगे बदन कट जाती है, मगर जाड़ा. भगवान जाड़ा न दिखाए किसी ग़रीब को.
    आज आपकी कविता ने बरसात का वही रूप दिखा दिया है. और इसका एक और पक्ष जो मेरे पिता जी ने नहीं दिखाया था मुझे उस समय, शायद बच्चा था तब. यह विभीषिका बरसात की. आपने तो जेठ सावन पर भूख को भारी बताया है. सच मानिये तो जेठ पर सावन भी भारी है और पूस भी.
    दुःखों की बदली, आँसुओं का सावन और भूख की नदी अब नहीं बहती. उन्होंने जुल्मों का ऐसा बाँध बाँध रखा है कि यह आँसू तेज़ाब होने का साहस भी नहीं कर पाते. राम, कृष्ण और भोलेनाथ के नाम पर ख़ून बहा देने वाले इन लोगों को क्या गंगा (सुरसरि) और यमुना का दर्द नहीं दिखाई देता. मुझे बरसात में भीगना इस उम्र में भी अच्छा लगता है. लेकिन पिता जी की सीख के बाद अब बरसात में आपकी सीख भी याद आएगी.
    आपकी कविता पढकर लगा कि इस फ़ॉर्मेट में कविता क्यों नहीं लिखी जा रही है आजकल. पढने वाला पढता चला जाता है और लगता है कि शब्दों छंदों के मेघ बरस रहे हैं और हम भीगते जा रहे हैं. बस बाढ़ की प्रतीक्षा है डॉ. राय!!

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  9. बहुत सुन्दर प्रस्तुति। धन्यवाद

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  10. तन तो भीगा ही मन अंदर तक भीग गया। सचमुच आपकी लेखनी से मेघ झमझमाझम बरसे हैं।

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  11. इस गीत नव पर आना
    अपनी आंखें सजाना
    भावों में डूबना-छितराना
    यादें पुरानी जगाना
    विश्‍वास नव जगा है।

    सिर्फ अपना घर जो बचाते हैं
    घर उनके अवश्‍य डूब जाते हैं
    सबका घर लगे जो अपना दर
    फिर नहीं किसी बात का है डर।

    विश्‍वास प्रकृति में हम जगाएं
    चलो मिलकर सब इसे बचाएं
    नवगीत सुभाष भाई के मिल
    सदा गीत गले में उतर आएं

    मेह का झीना राग है
    ऊष्‍मा सुरीला नाग है
    चोंच मारता काग है
    सांस सुरीला बाग है।

    नवगीत गाते रहो
    रचते रहो
    दाग अभावों के हटाते रहो
    भले ही आ जाए
    दालान में सबके पानी
    मिल कर सब सुन लीजै
    नाक सबकी बचाते रहो।

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  12. मुखड़े से लेकर अंत तक डॉ राय का गीत पाठक को पूरी तरह बांधे रहता है।और यही वह कसौटी है जिस पर खरा उतरना गीत के लिए अत्यावश्यक है। दूसरे, बारिश के आगमन की प्रतीक्षा और उसके आने के बाद के डर को मानव चेतना में घुला मिलाकर देखने से जो खूबसूरती उभरकर आई है उसने गीत की संपूर्ण अभिव्यक्ति को चार चाँद लगा दिए हैं। एक बेहद अच्छे गीत के लिए गीतकार को हार्दिक बधाई।

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  13. आरंभ से अंत तक कई प्रश्‍न चित्रित किये हैं आपने और अंत में एक विराट प्रश्‍नचिह्न 'और कब तक हम सहें वे जुल्म ढाएँ'।
    सार्थक नवगीत। बधाई।

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  14. भावविभोर कर गया ये नवगीत..एक-एक पंक्ति अंतस को नम कर गई..! वैसे भी सुभाष जी को पढना अपने आपमें एक सुखद अहसास है..! आभार !

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  15. वाह सर, आपने तो एक बहुत ही सुंदर रचना पढ़वाई है. आपका बहुत बहुत आभार.

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  16. ज्यों ज्यों अपने पड़ाव पर पहंच रहीं हैं यह कार्यशला और भी नौजवान हो रही है और इसकी जवानी के स्रोत है डा.सुभाष राय । श्रीमान आपके इस नवगीत ने न केवल नवगीत को उंचाई प्रदान की है बल्कि स्तरीय पाठको से भी इस मंच को धनवान किया है । हार्दिक बधाई

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  17. 1.
    "...आदमी जैसे भरोसा
    खो चुके हैं नीर के नट"

    वाह..वाह! प्रवंचक ‘बादलों’ को ‘नीर के नट’ का रूपक..लाजवाब!
    यहाँ ‘नीर’ के साथ ‘नट’ शब्द की प्रयुक्ति से बादलों की कितनी ही कलाबाज़ियों का चित्र उभर आता है। है न... राय साहब?

    2.
    "दर्द के झूले, अभावों ने
    रची कजरी हमारी
    जेठ सावन पर हमेशा
    ही पड़ी है भूख भारी.."


    कितने सारे बिम्ब रचेंगे इस एक गीत में, आपने कोई भी तो जगह नहीं छोड़ी जहाँ बिम्ब / प्रतीक / काव्य के सुन्दर गहने, आदि न टाँग दिये हों इस ‘गीत-बाला’ के तन पर !

    प्रतिक्रिया में किस-किस बिन्दु को पकड़ें..? हमरे लगे हेतना टैमुआ भी त नाही हव, अब तुहै बतावा... हम का करीं, भाय? बतइहऽ जरूर...हमके !

    3.
    "बिस्तरे, बर्तन हुए हैं
    नाव, आँगन ताल
    डूबकर इसमें जिएँ
    या डूब जाएँ"

    कितना लालित्य है इन पंक्तियों में!

    कुल मिलाकर आपकी भावगर्भित काव्य-वाणी मनहर है। हुज़ूर, काफी देर तक मेरा संवाद चलता रहा आपके इस गीत से।आपके भाव-लोक में सह-यात्रा करता हुआ, मैं न जाने कहाँ-कहाँ घूमने निकल पड़ा था कि अचानक "ट्रिंग-ट्रिंग" करता हुआ द्वार-घंटी का स्वर मेरे कर्णपट से आ टकराया।

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  18. सभी मित्रों, रचनाकार साथियों के प्रति विनम्र आभार.

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