प्रतिपल बदल रही दुनिया में
होली ने भी रंग बदला है
पेड़, प्लास्टिक, टायर, छप्पर
जलें, बुराई ना जलती है
मन रँगती थी जो पिचकारी
अब वह तन दूषित करती है
जहर प्रदूषण का तन मन पर
कैंसर के समान फैला है
मिट्टी की प्यारी रंगत अब
काम-कीच से दबी हुई है
घर की मुर्गी जाँ देकर भी
शुष्क दाल सी बनी हुई है
धोते धोते काम कीच रंग
गंगाजल भी अब गँदला है
महल-झोपड़ी, भगवा-हरा,
जवानी-जरा मिला दें अबकी
भस्म बुराई कर अच्छाई से
हम हाथ मिला लें अबकी
सबमें हैं प्रह्लाद होलिका
अबकी देखें कौन जला है
--धर्मेन्द्र कुमार सिंह
धर्मेन्द्र जी आपने एक सरल छंद बनाया है। सब पंक्तियों से 16 मात्राएँ। सरल छंद होने में कोई बुराई नहीं है पर कुछ नयापन जोड़ना नवगीत की ओर बढ़ने के लिये अच्छा है। घर की मुर्गी जैसे मुहावरे का प्रयोग बहुत चमत्कारिय इस लिये नहीं बन पड़ा क्यों कि हाल के दिनों में दाल मुर्गी से मँहगी हो गई। खैर काम कीच शब्द तो अच्छा है पर इसके प्रयोग का क्या विशेष अर्थ है वह स्पष्ट नहीं हो रहा है। अंतिम अंतरा पूरा का पूरा छंद से बाहर हो गया है। अर्थ भी ठीक से स्पष्ट नहीं हुआ है। इस पर फिर से काम किया जाना चाहिये।
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा कि मुक्ता लौट आई हैं और सार्थक टिप्पणियाँ लिख रही हैं। जब भी हम विषय की घोषणा करते है और रचनाएँ माँगते हैं रचनाकारों पर एक दबाव बना रहता है जल्दी से रचना भेजने का। उसके चलते रचना पर जितना काम होना चाहिये वह नहीं हो पाता है। पर इसमें कोई बुराई नहीं। रचना को कभी भी बेहतर बनाया जा सकता है। कार्यशाला कम से कम एक माह तक तो चलती है और जब प्रबुद्ध जन टिप्पणी करते हैं तब उसको ध्यान में रखकर प्रतिभागी अपनी रचना बेहतर बनाकर फिर से ईमेल कर सकते हैं।
जवाब देंहटाएंधर्मेन्द्र जी ने आधुनिक सरोकारों को छुआ है यह इस रचना का एक बहुत बड़ा गुण है। "मिट्टी की प्यारी सूरत अब काम कीच से दबी हुई है" में काम कीच के स्थान पर कोई आसान शब्द प्रयोग किया जा सकता था जो अर्थ को ज्याद् स्पष्ट करता जैसे... मिट्टी की प्यारी सूरत कूड़े कचरे से दबी हुई है ये दोनो पंक्तियाँ मिला कर १६+१६ इसी प्रकार धोते धोते काम कीच रंग को भी सरल किया जा सकता था। पर यह पंक्ति मात्राओं की दृष्टि से ठीक है। आलोचना या समीक्षा से हम कुछ सीख सकें सदा यह भाव बना रहना चाहिये और प्रश्नों का स्वागत होना चाहिये तभी कार्यशाला की सार्थकता है।
लीक से हट कर वाला नवगीत प्रस्तुत करने के लिए बधाई धर्मेन्द्र भाई| शायद आप 'काम कीच' में कामदेव से जुड़ी बात कहना चाह रहे हैं| यदि ऐसा है तो ये अत्युत्तम है| अर्थ समझ में आ जाता है| टायर जैसे शब्दों को होली के नवगीत से जोड़ना दिलचस्प लगा| आदरणीया मुक्ता जी [इनका प्रोफाइल उपलब्ध नहीं है, और मैं इन से सम्भवत: पहली बार जान पहिचान कर रहा हूँ] की कई सारी बातें सार गर्भित लग रही हैं| इस बार पूर्णिमा जी का भी मैदान में उतरना इस पाठशाला के बेहतरी की तरफ बढ़ने का इशारा कर रहा है|
जवाब देंहटाएंdhrmendra ji aapne jo
जवाब देंहटाएंtayar vali baat likhi hai desh yad aagaya
badhai
saader
rachana
मुक्ता जी की बात से सहमत हूँ कि छंद नया नहीं है। चौपाई की तरह का है मगर ये ३२ मात्राओं का छंद है और बीच में कहीं पर भी विराम नहीं है। इस तरह से अंतरे की तीनों पंक्तियाँ छंदबद्ध ही हैं। मुर्गी और दाल की बात तो उनकी तुलना उनके स्वाद के कारण की जाती है उनके दाम से नहीं। काम-कीच पर मैं सहमत हूँ कि अर्थ स्पष्ट नहीं हो रहा है और सुधार किया जा सकता है जैसा कि पूर्णिमा जी ने सही कहा कि जल्दी में लिखा हुआ गीत है। कोशिश करूँगा कि इसे सुधार के साथ दुबारा प्रस्तुत करूँ।
जवाब देंहटाएंसम-सामयिक भाव आपकी रचना का मूल मन्त्र है...
जवाब देंहटाएंजो आकर्षण का केन्द्र बिंदु है...
आभार...
धर्मेन्द्र जी, आपकी सब बातों से सहमत हूँ लेकिन इस बात से नहीं कि मुर्गी दाल से ज्यादा स्वादिष्ट होती है। दाल तो हमेशा मुर्गी से ज्यादा स्वादिष्ट होती है... :)
जवाब देंहटाएंबढ़िया गीत है धर्मेन्द्र जी, सरोकार नए हैं, टायर जैसे शब्द गीतों में कम आते हैं सो वह भी भला लगा। भले ही मुक्ता जी ने आपकी बात से सहमति प्रकट कर दी लेकिन अंतिम अंतरा फिर से कोशिश करने में बुराई नहीं।
जवाब देंहटाएंनये प्रतीक व सरोकारों से समुन्नत इस नवगीत के लिए बधाई का हर एक पैमाना बौना दिखता हैं। अपने अनन्य प्रेमी भाई धर्मेन्द्र कुमार सज्जनजी को कोटिषः आभार।
जवाब देंहटाएं