मन करता है फिर कोई अनुबंध लिखूँ
गीत गीत हो जाऊँ ऐसा छंद लिखूँ
करतल पर तितलियाँ खींच दें
सोन सुवर्णी रेखाएँ
मैं गुंजन गुंजन हो जाऊँ
मधुकर कुछ ऐसा गाएँ
हठ पड़ गया वसंत कि मैं मकरंद लिखूँ
श्वास जन्म भर महके ऐसी गंध लिखूँ
सरसों की रागारूण चितवन
दृष्टि कर गई सिंदूरी
योगी को संयोगी कह कर
हँस दे वेला अंगूरी
देह मुक्ति चाहे फिर फिर रसबंध लिखूँ
बंधन ही लिखना है तो भुजबंध लिखूँ
सुख से पंगु अतीत विसर्जित
कर दूँ यमुना के जल में
अहम समर्पित हो जाने दूँ
कल्पित संकल्पित पल में
आगत से ऐसा भावी संबंध लिखूँ
हस्ताक्षर में निर्विकल्प आनंद लिखूँ
--रामस्वरूप 'सिंदूर'
"मन करता फिर कोई अनुबंध लिखूं / गीत गीत हो जाऊं ऐसा छन्द लिखूं"- बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. आप दोनों को बधाई.
जवाब देंहटाएंगीत गीत हो जाऊँ ऐसा छंद लिखूँ ...
जवाब देंहटाएंआहा... नमन....
bahut sunder geet likha hai
जवाब देंहटाएंbadhai
rachana
रामस्वरूप सिंदूर जानेमाने नवगीतकार हैं। लेकिन वेब पर उनके बहुत ही कम नवगीत आ पाए हैं। अनुभूति में उनके पाँच नवगीत इसी अंक में देखकर प्रसन्नता हुई थी। यहाँ भी उन्हें देखना सुखद है। इस रसमय नवगीत को प्रस्तुत करने के लिये हार्दिक आभार !
जवाब देंहटाएंवाह वाह, गीत को देखकर ही लगता है कि सिद्धहस्त नवगीतकार द्वारा लिखा गया है। बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर नवगीत है! मन प्रसन्न हो गया पढ़ कर। इसकी सुगेयता प्रभावित करती है। मुझे लगता है दूसरे बन्द में ’देह मुक्ति चाहे ... में ’से’ छूट गया है टाइप होने से। इसी प्रकार अन्तिम बन्द में ’कल्पित संकल्पित पल में, में प्रवाह भंग लग रहा है। हो सकता है मेरे पढ़ने के ढंग में ही कोई त्रुटि हो। पुनः अच्छे नवगीत के लिये रचनाकार को बधाई!
जवाब देंहटाएंसादर
अहहाहा क्या नवगीत है, ज़मीन से जुड़ा, मिट्टी की सौंधी सुगंध वाला, पाठक से सीधा तारतम्य स्थापित करता हुआ नवगीत| भाई राम स्वरूप सिंदूर जी की लेखनी को सादर नमन|
जवाब देंहटाएंपूर्णिमा जी:-
इस पंक्ति में २ मात्रा वाला कोई शब्द टाइप होने से रह गया है| कृपया सुधार करने की कृपा करें:-
देह मुक्ति चाहे फिर रसबंध लिखूँ
ATI UTTAM PRASTUTI..KAVI KO HARDIK BADHAI./..
जवाब देंहटाएंराम स्वरूप सिंदूर जी का यह गीत पहले सुना पढ़ा हुआ है पर फागुन के मौसम का रंग जमाने में इसकी मिसाल नहीं। यहाँ देखकर प्रसन्नता हुई।
जवाब देंहटाएंअमित और नवीन जी आपने ठीक कहा फिर दो बार होना चाहिये था। टंकण की गलती के लिये क्षमा चाहती हूँ। आप सबने स्नेह से पढ़ा ध्यान से याद दिलाया,आभारी हूँ।
जवाब देंहटाएं-पूर्णिम वर्मन
भाई रामस्वरूप ’सिंदूर’ की सेंदूरी व गीतमय अनुबंध निःसंदेह श्लाघनीय है। नवगीत में उनकी इस धमाकेदार उपस्थिति का हम तहेदिल से स्वागत करते है।
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