कंकर-पत्थर के जंगल में
गगन भेदते कोलाहल में
बौराया मन ढूँढता फिरता
ठाँव कहीं इक शांत- एकांत
भागाभागी -आपाधापी
आगे पीछे
लोग ही लोग
छूटी जाए समय की गाडी
चहूँ दिशा में भागें लोग
बीच गली की भीड़ -भाड़ में
रुदन, क्रंदन
चीत्कार में
झुलसा सा मन ढूँढा फिरता
छाँव कहीं इक शांत-एकांत
कौन अपना है कौन पराया
कैसे हो पहचान यहाँ
आँख चुराएँ
आँख दिखाएँ
रिश्तों का सम्मान कहाँ
घर -अंगना की दीवारों में
मेले झूले त्योहारों में
भटका सा मन ढूँढा फिरता
गाँव कहीं इक शांत - एकांत
नील गगन, दीपों से तारे
कहाँ वो नदियाँ
कहाँ किनारे
पंछी पर्वत ऋतुएँ तरुवर
दूर देस बसते बंजारे
इकतारे की मृदु भाषा में
ढाई आखर की आशा में
जोगी सा मन ढूँढा फिरता
धाम कहीं इक शांत -एकांत
-शशि पाधा
(कनेक्टीकट यू.एस.ए)
शशि पाधा जी, आपकी रचना नवगीत के बहुत निकट तक आ गई है थोड़ा परिश्रम कर लीजये तो यह नवगीत हो सकता है। कई जगह लय बाधित है, इस पर ध्यान देना होगा।
जवाब देंहटाएंशब्दों की पकड़ अच्छी बन पडी है |
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