3 अक्तूबर 2011
७. उत्सव का मौसम
घर घर में
फिर आया
उत्सव का मौसम
बिजली की धोबिन ने
जमकर था लूटा
धोबी इसके फंदों
से थोड़ा छूटा
त्यौहारी पैसों से
जेबों में खनखन
सूखे आँगन में है
कपड़ों का सावन
सहरा पे लहराया
रंगों का परचम
हलवाई ने प्रतिमा
शक्कर से गढ़ दी
भूखी गैलरियों में
जमकर ये बिकती
बढ़ई के औजारों में
होती खट-खट
दिन भर भड़भूँजे के
घर मचती पट-पट
आँवें के मुख पर है
लाली का आलम
मैली ना हो जाएँ
बैठीं थीं छुपकर
बक्सों से खुशियाँ सब
फिर आईं बाहर
हर घर में रौनक है
गलियों में हलचल
फूलों से लगते वो
पत्थर जो थे कल
अद्भुत है कमियों का
खुशियों से संगम
-धर्मेन्द्र कुमार सिंह
(बरमाना, बिलासपुर,हिमाचल प्रदेश)
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कार्यशाला : १८
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माटी की सौंधी महक और टटकापन लिये यह नवगीत रुचा.
जवाब देंहटाएंसुंदर नवगीत है धर्मेन्द्र जी...
जवाब देंहटाएंबधाई...
बिजली धोबिन, शक्कर की प्रतिमा और कमियों का खुशियों से संगम।
जवाब देंहटाएंवाह वाह वाह। धर्मेन्द्र भाई आप सहसा ही प्रभावित कर जाते हैं। बहुत बहुत बधाई।
मैली ना हो जाएँ
जवाब देंहटाएंबैठीं थीं छुपकर
बक्सों से खुशियाँ सब
फिर आईं बाहर
हर घर में रौनक है
गलियों में हलचल
फूलों से लगते वो
सुंदर नवगीत
बहुत बधाई...
rachana
आचार्य जी, गीता जी, नवीन भाई एवं रचना जी उत्साहवर्द्धन के लिए आप सबका बहुत बहुत आभार
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