रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।
प्रेम की अलमारी में, कब से इसे बंद किया था,
हर नाते की चाप को, मुस्कुरा के सह लिया था,
संबंधों की गठरी से, टुकडा-टुकडा कर गिर पड़ा है,
रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।
तकिया से मन को, कभी सराहने पे दबा लेता,
बिछौना बना ज़िन्दगी के पलंग पे कभी बिछा लेता,
आज ये ख्वाहिशों की लाठी बन, मुझसे लड़ चला है,
रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।
हाथ हैं की, मजबूरियों की जेब में पड़े हैं,
मन के टुकडों को, हम कुचल के चल पड़े हैं,
अंजान प्रेयसी सा, मुँह फेर के पड़ा है,
रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।
---मीत (हितेश कुमार)
प्रेम की अलमारी में, कब से इसे बंद किया था,
जवाब देंहटाएंहर नाते की चाप को, मुस्कुरा के सह लिया था,
संबंधों की गठरी से, टुकडा-टुकडा कर गिर पड़ा है,
रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।
एक अच्छे गीत के लिए बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद
विमल कुमार हेडा
वाह..बहुत सशक्त अभिव्यक्ति. शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
bahut behtrin likha hai aapne.. aapko dhero badhai..chandrapal@aakhar.org
जवाब देंहटाएंमेरा गीत प्रकाशित हो गया.. वाह...!!!!
जवाब देंहटाएंअब मुझे अपनी स्वाति दी के गीत का भी इंतज़ार है....
मीत
बहुत खूबसूरत रचना है।
जवाब देंहटाएंहाथ हैं की, मजबूरियों की जेब में पड़े हैं,
जवाब देंहटाएंमन के टुकडों को, हम कुचल के चल पड़े हैं,
अंजान प्रेयसी सा, मुँह फेर के पड़ा है,
रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।
ye lines bahut hi sunder lagin
sunder geet
badhai
rachana
हाथ हैं की, मजबूरियों की जेब में पड़े हैं,
जवाब देंहटाएंमन के टुकडों को, हम कुचल के चल पड़े हैं,
अंजान प्रेयसी सा, मुँह फेर के पड़ा है,
रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।....
bhav man ko chhoote haiN
matraoN kee galtee khatak rahi jaise upar haath haiN kee/ki?
chhand meiN bhee saman matra ka abhav hai....
मनोविश्लेषण करती एवं मनोसंघर्ष को रेखांकित करती हुई अच्छी कविता है।
जवाब देंहटाएंमीत जी,
जवाब देंहटाएंअन्तर्मन की अनुभूति एवं बाह्य परिस्थितियों का चित्रण करता हुआ एक सुन्दर नवगीत है आपका । बधाई।
शशि पाधा
behad khoobsurat hain ye ..likhte rahe
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