दीपक जलाती ही रही
हर साल
दिनरात पिसती बुदबुदाती
विवशता की मूर्ति वह
पीर ओढ़े देह पर
कर्ज में डूबी हुई
उपवास रखती पर्व पर
लक्ष्मी कब पास फटकी
जिंदगी बेहाल
दीपक जलाती ही रही
हर साल
काँच सी खंडित पड़ी संभावनाएँ
किर्च किर्च हो गई हैं आशाएँ
पर मरती नहीं संवेदनाएँ
मधुबन का सलोना स्वप्न
मरुथल हो गया
रह गया केवल सवाल
जिंदगी बेहाल
दीपक जलाती ही रही
हर साल
वह कहानी बनी आँसुओं में तैरती
प्रश्न केवल पूछती
कब छँटेगा यह अँधेरा
कब जलेगा यह दलिद्दर
प्रश्न तो बस प्रश्न बन रह गए
दे न पाया आज तक कोई जवाब
जिंदगी बेहाल
दीपक जलाती ही रही
हर साल
--निर्मला जोशी
दृष्टि की व्यापकता , विचारोत्तेजक!
जवाब देंहटाएंरचना का भाव बहुत सुन्दर है। पर प्रवाह बाधित हो रहा है। मैं थोड़े से बदलाव करने का साहस कर रहा हूँ। आशा है रचनाकार अन्यथा नहीं लेगीं।
जवाब देंहटाएंदीपक जलाती ही रही,
हर साल|
विवशता की मूर्ति सी वह पीर ओढ़े देह पर,
कर्ज में डूबी हुई, उपवास रखती पर्व पर,
लक्ष्मी कब पास फटकी,
जिंदगी बेहाल,
दीपक जलाती ही रही,
हर साल।
काँच सी खंडित पड़ी संभावनाएँ,
मगर हैं मरती नहीं संवेदनाएँ,
मधुबन का सलोना स्वप्न,
मरुथल सा हुआ बेहाल,
दीपक जलाती ही रही,
हर साल।
बनकर कहानी एक, वह थी आँसुओं में तैरती,
कब छँटेगा यह अँधेरा, प्रश्न केवल पूछती,
दे न पाया आज तक कोई जवाब,
जिंदगी बेहाल,
दीपक जलाती ही रही,
हर साल।
अच्छे नवगीत का कथ्य लिये यह गीत अपनी छन्द रचना के कारण कमजोर सा हो गया लगता है। सज्जन जी के प्रयत्न भी सीमित प्रभाव दे पाये हैं। फिर भी बधाई!
जवाब देंहटाएंलीक से हटकर मार्मिक अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंनिर्मला जी,
जवाब देंहटाएंसदा की तरह एक प्रभावमय गीत के लिये धन्यवाद।
सादर,
शशि पाधा
नवगीत की सभी विशेषताओं से भरा नवगीत के लिये कोटिशः बधाई
जवाब देंहटाएंआदरणीया निर्मला जी,
जवाब देंहटाएंभाव बहुत ही सुन्दर! प्रवाह थोड़ा कम लगा, पर बिम्ब एक कहानी कहते से!
ये पंक्तिया भी प्रभावशाली :
"दिनरात पिसती बुदबुदाती
विवशता की मूर्ति वह
पीर ओढ़े देह पर
काँच सी खंडित पड़ी संभावनाएँ
...पर मरती नहीं संवेदनाएँ
वह कहानी बनी आँसुओं में तैरती
प्रश्न केवल पूछती
कब छँटेगा यह अँधेरा
कब जलेगा यह दलिद्दर"