23 मई 2010

२५ : आतंक के साए हैं : वंदना सिंह

रिश्ता रिश्तों से घबराए
विषबेल खेत को खाए है
बाहर से आकर क्यूं कोई
मन बीज वहम के बोए है

तेरे अपने ना समझे जो
जानेंगे पीर पराई वो
चुग्गे संग जाल बिछा न हो
कंचन हिरण सी छलना न हो
मन की कोई कमजोरी क्यूं
मजबूत नींव दरकाए है

बम से मरे एक बार मरे
जीवित हर पल सौ बार डरे
आरक्षित कोख अरक्षित है
कौन मनुज जो सुरक्षित है
साहस पर भारी दुस्साहस
शहर आतंक के साये हैं

भूलो ना राखी बन्धन को
बिटिया के अल्हड बचपन को
वो उसी गली में खेल सके
जहाँ पास पडोस मेल रहे
चल घर ऑंगन मां का दामन
नीम का झूला बुलाए है
--
वंदना सिंह

3 टिप्‍पणियां:

  1. वंदना जी . नवगीत की भावभूमि प्रशंसनीय । शब्द विन्यास मे उत्कृष्टता आ जाय ।

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  2. विमल कुमार हेडा़24 मई 2010 को 9:19 am बजे

    रिश्ता रिश्तों से घबराए
    विषबेल खेत को खाए है
    बाहर से आकर क्यूं कोई
    मन बीज वहम के बोए है
    ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी, वंदना जी को बहुत बहुत बधाई
    धन्यवाद
    विमल कुमार हेडा़

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