28 फ़रवरी 2011

२. फागुन आया

ठंडी चले बयार
गंध में डूबे आँगन द्वार
फागुन आया।

जैसे कोई थाप
चंग पर देकर फगुआ गाए
कोई भीड़ भरे मेले में मिले और खो जाए
वेसे मन के द्वारे आकर
रूप करे मनुहार
जाने कितनी बार
फागुन आया।

जैसे कोई
किसी बहाने अपने को दुहराए
तन गदराए, मन अकुलाए, कहा न कुछ भी जाए
वैसे सूने में हर क्षण ही
मौन करे शृंगार
रंगों के अंबार
फागुन आया।

-डॉ० तारादत्त 'निर्विरोध'

11 टिप्‍पणियां:

  1. डॉ० तारादत्त जी आपकी कविताएं आज अखबार में बहुत पहले से पढता रहा हूँ ब्लॉग पर आपको पढ़ना अच्छा लगा |पूर्णिमा जी को और आपको भी बधाई

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  2. बहुत सुंदर रचना, तारादत्त जी को बहुत बहुत बधाई।

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  3. इस नवगीत में हालाँकि नए सरोकारों को नहीं छुआ गया है पर छंद नया है, कहन नया है। कुछ चीजें बड़ी रोचक हैं, जैसे- कोई भीड़ भरे मेले में मिले और खो जाए, अनेक नए बिंबों के कारण यह रचना आकर्षक बन गई है। फागुन का कोमल स्पर्श मन भाया। बधाई और शुभ कामनाएँ!! नए रचनाकारों को इस प्रकार के बिंबों पर ध्यान देना चाहिये।

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  4. ठीक कहा मुक्ता जी, सुंदर बिंबों वाला सुर ताल से भरा हुआ नवगीत। मनभावन।

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  5. भाई तारादत्त जी मनभावन नवगीत प्रस्तुति के लिए सहृदय बधाई| बिंब तो सुंदर हैं ही और ताल भी अच्छी तरह से बिठाई हैं आपने|

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  6. सुंदर मनभावन नवगीत के लियें...
    आपको बधाई...

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  7. फागुन और होली की सूचना देता एक और बढ़िया शृंगारिक नवगीत यह संकलन तो जबरदस्त बन रहा है।

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  8. ’निर्विरोधजी’ यदि कहें कि यह गीत ’निर्विरोध रूप से सुंदर व सराहनीय है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बधाई।

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