दिन वसंत के
और तुम्हारी हँसी फागुनी
दोनों ने है मंतर मारा
चारों और हवाएँ झूमी
हम बौराये
तोता दिखा हवा में उड़ता
हरियल पंखों को फैलाये
वंशी गूँजी
लगता ऋतु को टेर रहा है
सडक-पार बैठा बंजारा
पीतबरन तितली
गुलाब पर रह-रह डोली
देख उसे
चंपा की डाली पर आ बैठी
पिडुकी बोली
'कहो सखी
क्या भर लेगी तू अभी-अभी
खुशबू से अपना भंडारा
धूप वसंती साँसों की है
कथा कह रही
आओ, हम-तुम मिलकर बाँचें
गाथा जो है रही अनकही
कनखी-कनखी
तुमने ही तो फिर सिरजा है
सजनी, इच्छावृक्ष कुँआरा
-कुमार रवीन्द्र
सुंदर लिखा है भाव भी बहुत ही अच्छे हैं
जवाब देंहटाएंबधाई
रचना
बहुत सुंदर नवगीत, रवींद्र जी को बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंअनगिनत देशज शब्दों से सुसज्जित, समाज के आख़िरी व्यक्ति की बातें बतियाते सुंदर नवगीत को प्रस्तुत करने के लिए पुन: पुन: अभिनन्दन|
जवाब देंहटाएंअति सुंदर ।
जवाब देंहटाएंकनखी कनखी
तुमने ही तो फिर सिरजा है
सजनी , इच्छावृक्ष कुंवारा
बहुत खूब भाई रवीन्द्रजी हार्दिक बधाई
आदरणीय कुमार रवीन्द्र जी सुंदर गीत के लिए आपको बधाई और होली की शुभकामनाएं |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गीत है आपका. वसंत का मौसम और फागुनी हँसी दोनों जब मंतर मारेगे, तो कोई बचकर कहाँ जा सकता है?. ऐसी स्थिति में मन तो बौरायेगा ही, लेकिन यह बौराना सब को नसीब नहीं होता और जिसको हो गाया वह सौभाग्यशाली है. और यह मेरा अहोभाग्य है कि मैं ऐसे मन को आपकी रचना से गुजरने पर महसूस कर रहा हूँ. बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ उन सभी सुहृद मित्रों का , जिन्होंने नवगीत पाठशाला में शामिल मेरे गीत को अत्यंत स्नेह से स्वीकारा | यही उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि |
जवाब देंहटाएंकुमार रवीन्द्र