सरसों सी मुस्कानोंवाली,
तीसी की तरुणाई में।
फिर सुंदर इक गीत सुनाएं
फागुन की अगुआई में।
सुनके नाचे सोन चिड़ैया
नाचे, तोता, मैना, मोर,
मन में नाचे प्रेम कन्हैया
चाहे शाम सुहानी भोर,
बांह पकड़ के बोले बैरी
चल चुपके अमराई में!
झरबेरी झुमके सा झूले
गुलमोहर से गाल हुए,
महुए सा मुस्काए जोबन
जी के हैं जंजाल हुए,
सिमटा जाए लाज का पहरा
इस पागल़ पुरवाई में!
सोते जगते संग सजन के
पायलिया झनकार करे,
खनके चूड़ी,कंगन सुनके
कोयलिया किलकार करे,
आते जाते लोग निहारे
घर, बाहर, अगनाई में!
गदगद हो गए बरगद पीपल
पर्वत पिघला जाए सखी,
पंडित ज्ञानी पीछे पड़ गए
जोगी जोग मिलाए सखी,
टूट रहे सब जप,तप संयम
एक मेरी अंगराई में!
--शंभु शरण मडल,धनबाद
इस सुंदर गीत के लिए शंभु शरण मंडल जी को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंवाह मंडल साहब ने वाकई चूड़ी ही नहीं मन भी खनका दिया.उन्होंने होली के उन मदमस्त गंवई घड़ी की याद दिला दी जिसमें सिर्फ उद्दात उमंग था, कोई प्रबंध नहीं और इनके समर्थन में सारी प्रकृति को साक्षी बना दिया गया है, झरबेरी,गुलमोहर,महुए हो या बड़गद, पीपल. होली की सौगात इससे उम्दा शायद संभव नहीं. बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर..ख़ूबसूरत शब्दचित्र..
जवाब देंहटाएंसुंदर गीत अच्छे भाव
जवाब देंहटाएंबधाई
रचना
चित्रात्मक
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति के लियें
आपको बधाई...
आभार..
गीता
बड़े आयाम वाला और कुदरत के बेहद करीब मनोहारी नवगीत| बधाई भाई शम्भु शरण जी|
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