दीप देहरी का कहलाऊँ
बनूँ प्रीत प्रतीक मुस्काऊँ
बाहर भीतर ज्योत जगाकर
पथ भटकों को राह दिखाऊँ
तेरी बगिया का फूल बनूँ
रागों से आह्लाद जगाऊँ
तोड़े मसले चाहे कोई
सिर्फ नेह सुगंध फैलाऊँ
वंशी का स्वर यदि मैं पाऊँ
हृदय हृदय तरंग भर जाऊँ
छेड़ छेड़ नवीन ताने में
मर्म सभी का छू पाऊँ
जीवन चाहे जो भी पाऊँ
समर्पित देश को कर जाऊँ
हो तेरा आराधन यूँ ही
दुखियों के काम मैं आऊँ
वन्दना सीकर राजस्थान
अच्छी रचना। बधाई।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता है
जवाब देंहटाएं