मन की महक
बसी घर-अँगना
बनकर बंदनवार
नेह नर्मदा नहा,
छाछ पी, जमुना रास रचाए
गंगा 'बम भोले' कह चंबल
को हँस गले लगाए
कहे : 'राम जू की जय'
कृष्णा-कावेरी सरयू से-
साबरमती सिन्धु सतलज सँग
ब्रम्हपुत्र इठलाए
लहर-लहर
जन-गण मन गाए
'सलिल' करे मनुहार
विन्ध्य-सतपुड़ा-मेकल की
हरियाली दे खुशहाली
काराकोरम-कंचनजंघा
नन्दादेवी आली
अरावली खासी-जयंतिया
नीलगिरी, गिरि झूमें
चूमें नील-गगन को, लूमें
पनघट में मतवाली
पछुआ-पुरवैया
गलबहियाँ दे
मनाएँ त्यौहार
चूँ-चूँ चहक-चहक गौरैया
कहे हो गई भोर
सुमिरो उसको जिसने थामी
सब की जीवन-डोर
होली-ईद-दिवाली-क्रिसमस
गले मिलें सुख-चैन
मिला नैन से नैन
बसें दिल के दिल में चितचोर
बाज रहे
करताल-मंजीरा
ठुमक रहे करतार
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संजीव सलिल
बहुत सुन्दर आचार्य जी, एक और सुन्दर रचना के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर एवं मनभावन गीत, संजीव सलिल साहब को बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
विमल कुमार हेड़ा।
बहुत खूब आचार्य जी, एक और खूबसूरत रचना के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंaap sab ka bahut dhanyavad.
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