दादा जी की आँखें बूढ़ी होकर भी
अखबारों के भीतर गड़ती जाती हैं
समाचार में निहित भाव से हिलमिल कर
अंतरमन में जाने क्या बतियाती हैं
एक जमाना ऐसा था जब
खबर खुशनुमा आती थी
सुबह-सवेरे चाय की चुस्की
ज्ञान सुधा भर जाती थी
लेकिन आज समय है बे-कल
खबरों पर रफ्तार की दंगल
सेक्स, ग्लैमर, औ' खून-खराबा
खबर गई बस इतने में ढल
पैसों में बिकती है पाई जाती है
न्यूज रूम में खबर बनाई जाती है
शब्दों के व्यवहार हैं रूखे
समाचार हैं एड सरीखे
मालिक संपादक बन बैठे
कोई भला क्या इनसे सीखे
जो थे कभी ज्ञान की कुंजी
हावी वहाँ आज है पूँजी
सरस्वती पर लक्ष्मी भारी
माल-मुनाफे में सब धूँजी
खबरों से बेरूखी दिखाई जाती है
सिर्फ लाभ की बीन बजाई जाती है
नियति वर्मा
(इंदौर)
अच्छा प्रयास.
जवाब देंहटाएंआपको समर्पित कुछ पंक्तियाँ:
है अख़बार नियति का मारा
हर दिन सिसक रहा बेचारा.
हम खुशियों से मुँह फेरे हैं-
गम का डेरा हर घर-द्वारा.
मूल्यों-सामाजिकता से दूरी
प्रगति बताई जाती है...
अपनी तरह कि अनूठी लय के साथ वेगवान यह नवगीत भी सामाजिक विसंगतियों पर करारा कटाक्ष करता है| गीतकारा ने छन्द अनुपालन का भरपूर प्रयास किया है, कहीं कहीं थोड़ा लय का व्यवधान जरूर महसूस होता है|
जवाब देंहटाएंज्ञान सुधा भर जाती थी................
न्यूज रम में खबर बनाई जाती है..............
समाचार हैं एड सरीखे - मालिक संपादक बन बैठे .............
ये वो पंक्तियाँ हैं जो इस नवगीत में चार चाँद लगा रही हैं| रचनाकारा नियति वर्मा जी को बहुत बहुत बधाई|
समस्या पूर्ति मंच पर कुण्डलिया छन्द पर आयोजित आयोजन में आप सभी का हार्दिक स्वागत है:- http://samasyapoorti.blogspot.com/
सुंदर नवगीत, बधाई
जवाब देंहटाएंआप सब की हौसला अफजाई का शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंअपने भावों को आपने
जवाब देंहटाएंअच्छी तरह से व्यक्त किया है...
आपको बधाई...नियति जी..
नियति का यह पहली नवगीत है। इस दृष्टि से यह बहुत प्रशंसनीय बन पड़ा है। आशा है अगली कार्यशाला में उनका गीत और भी निखर कर आएगा। बधाई और शुभ कामनाएँ।
जवाब देंहटाएंशब्दों के व्यवहार हैं रूखे
जवाब देंहटाएंसमाचार हैं एड सरीखे
मालिक संपादक बन बैठे
कोई भला क्या इनसे सीखे
जो थे कभी ज्ञान की कुंजी
हावी वहाँ आज है पूँजी
सरस्वती पर लक्ष्मी भारी
माल-मुनाफे में सब धूँजी
सुंदर नव गीत
रचना
दादा जी की आँखें बूढ़ी होकर भी
जवाब देंहटाएंअखबारों के भीतर गड़ती जाती हैं
समाचार में निहित भाव से हिलमिल कर
अंतरमन में जाने क्या बतियाती हैं
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बहुत सही रचना!
रचना जी की कलम को सलाम!