12 मई 2009

7- लावण्या


मौसम कितने बदले याराँ,
मगर प्यार का रँग न बदला !

छिप गये भोर के सारे तारे,
मन मेँ फिर भी कुछ ना बदला
चुप है चँदा,सर्द हवायें,
पत्ते खडके पगडँडी पे,
औ' मन मचला!
मौसम कितने बदले याराँ,
मगर प्यार का रँग न बदला!

याद किसी की जिया जलाये,
तन सुलगे, मन दहके याराँ,
पलछिन पी का पँथ निहारूँ,
हुये बस्ती मेँ हम, बँजारे बाबा
मौसम कितने बदले याराँ,
मगर प्यार का रँग न बदला !

मेँहदी, कँगना, बिछवा, पायल,
सब फीके हैँ तुम बिन सजना
अब कैसे मन को समझाऊँ,
हारे मन के 'राम' न सजना!
मौसम कितने बदले याराँ,
मगर प्यार का रँग न बदला!

भरी दुपहरिया, सूना आँगन,
तपती जेठ, नयन का काजल,
परदेसी की प्रीत के बन गये बादल
लगी जिया मेँ कैसी ये हलचल!
मौसम कितने बदले याराँ,
मगर प्यार का रँग न बदला!

आग लगे सारी दुनिया को
बिन तेरे मेरा कौन ठिकाना,
मैँ जल जाऊँ, तब आओगे?
कह दो तुम से क्या अनजाना
मौसम कितने बदले याराँ,
मगर प्यार का रँग न बदला!

15 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर रचना, जेठ की दुपहरी में काले घने बादलों की छाया सी।

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  2. लावण्या जी ने बिरहन गीत में वियोग श्रृंगार का सजीव चित्रण किया है। पहला अन्तरा बिल्कुल नवगीत कि दिशा में चला था किन्तु बाद में फिर परम्परागत गीत की तरह ही आगे बढा है। कुछ बहुत अच्छे प्रयोग भी गीत में किये गये है। दो तीन जगह कुछ परिवर्तन की आवश्यकता है।
    १॰॰छिप गये भोर के सारे तारे, यहाँ छिपे भोर के सारे तारे
    २॰॰हुये बस्ती मेँ हम, बँजारे बाबा यहाँ मात्राएं बहुत बढ रही हैं होना चाहिये "जैसे बस्ती में बंजारा"
    ३॰॰भरी दुपहरिया, सूना आँगन, भरी दुपहरी सूना आंगन
    ४॰॰परदेसी की प्रीत के बन गये बादल यहाँ कर सकते हैं "परदेशी की प्रीति से बादल "
    ५॰॰बिन तेरे मेरा कौन ठिकाना, " बिन तेरे है कौन ठिकाना "

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  3. बहुत सुन्दर !
    घुघूती बासूती

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  4. आहहाहा...लावण्या जी की अद्‍भुत लेखनी का चमत्कार...
    गीत का अनूठा अंदाज है और "यारां" क चस्पा एक अलग ही रंग दे रहा है।

    बहुत सुंदर

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  5. आदरणीय कटारे जी के सुझावोँ को विनत शीश झुकाये,
    स्वीकारते हुए,
    गीत मेँ निखार आने से
    अब मुझे खुशी हुई है
    धन्यवाद-
    आगे भी, कृपया,
    मार्ग दर्शन करते रहेँ -
    आप सभी की सह्र्दयता से की गई टीप्पणियोँ के लिये
    सच्चे ह्र्दय से आभारी हूँ ...
    लिखने मेँ तभी रस आता है जब
    बात मन से सीधी निकले ..
    और बारम्बार पढने से
    और सही हो जाती है कविता
    ..
    - लावण्या

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  6. छिप गये भोर के सारे तारे,
    मन मेँ फिर भी कुछ ना बदला
    चुप है चँदा,सर्द हवायें,
    पत्ते खडके पगडँडी पे,
    औ' मन मचला!

    बदला से मचला की तुकबंदी दिख तो रही है पर ३ पंक्तियों के बाद क्यों? हर अंतरे में चार पंक्तियां है. यहाँ पाँच क्यों? मात्राओं का तो मुझे ज्ञान नहीं है. हो सकता है कि मात्राएँ बिलकुल दुरुस्त हो. लेकिन ये ४-५ का भेद खटकता रहा. और सच कहूँ तो ये 'औ' भी कुछ जमा नहीं. जबरदस्ती का मामला ज्यादा लगा.

    अभी तक ७ नवगीत पढ़े जा चुके हैं. सब में तकरीबन एक ही बात, एक ही भाव. शायद शीर्षक पंक्ति का दोष है. लेकिन जो भी हो, बाकी के १० और गीत पढ़ने के लिये हौसला चाहिये. इस आपा-धापी के युग में किसके पास समय होगा इन्हें पढ़ने के लिये? या तो वे जो नवगीत लिखते हैं, लिखना चाहते हैं, या सीखना चाहते हैं

    अरे हाँ, यही तो उद्धेश्य है इस पाठशाला का.

    लेकिन पाकशास्त्र सीखने वाला भी लौकी के कोफ़्ते कितनी बार खा सकता है?

    कटारे जी - आपसे सीखने का यह स्वर्णिम अवसर है. अगर हो सके तो मात्राओं के बारे में थोड़ी और जानकारी दिया करें. जैसे कि आपने लिखा कि 'मात्राएं बहुत बढ़ रही है'. यहाँ अगर आप लिखते कि मात्राएं १९ हो गई है, इन्हें १४ किया जा सकता है. (१९ और १४ उदाहरण के लिये हैं - और मेरे मन की उपज है)

    सम्भवत: यह ज्ञान सुझाई हुई पुस्तकों से मिल सकता है. लेकिन मेरी कोशिश है कि इस पाठशाला में आप से सीखूँ.

    मानता हूँ कि आप कविता के भाव को नहीं परख रहे हैं सिर्फ़ नवगीत की परिभाषा के अंतर्गत इनका परीक्षण कर रहे हैं. तो क्यों न अंक भी दे दिये जाए? मैं नहीं समझता की किसी को बुरा लगेगा.

    जैसे कि ५ अंक इस बात के कटे, ५ अंक इस बात के आदि आदि. इससे यह समझने में आसानी होगी की नवगीत के मुख्य तत्व क्या है और उन पर हम कितने खरे उतरें

    जैसे कि ग़ज़लगो कहते हैं कि रदीफ़ के इतने, काफ़िया के इतने, मतले का इतना, मक़ते का इत्ना, बहर का इतना, वज़न का इतना...



    सद्भाव सहित
    राहुल
    http://mere--words.blogspot.com

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  7. लावण्या का गीत सुंदर है। जैसा शास्त्री जी ने कहा इसका पहला अंतरा नवगीत का है। यानि एक नया छंद बनाया गया है जिसमें 2 पंक्तियों के बाद अर्ध विराम दिए गए हैं और तीसरी पर तुक मिलाई गई है। यही छंद अगर पूरे गीत में अपनाया जाता तो यह नवगीत बन सकता था। मुखड़ा दो पंक्तियों के स्थाई के रूप में है अतः इसको साथ में लिखा जाना था। ऐसे-

    मौसम कितने बदले याराँ,
    मगर प्यार का रंग न बदला!
    छिप गये भोर के सारे तारे,
    मन में फिर भी कुछ ना बदला

    यहाँ देखें तो स्थाई की दोनों पंक्तियों में 32-32 मात्राएँ हैं या ऐसे भी कह सकते हैं को 16 पंक्तियों के 4 चरण हैं।

    अब अंतरा, इसमें प्रवाह लाने और एकरूपता लाने के लिए पहली दो पंक्तियाँ समान मात्राओं की बनाई गई हैं, जबकि विविधता देने के लिए तीसरी पंक्ति बिलकुल आधी यानी 8 मात्राओं की है।
    चुप है चंदा,सर्द हवायें,= 16
    पत्ते खड़के पगडंडी पे, = 16
    औ' मन मचला! = 8
    तकनीकी दृष्टि से यह बहुत ही सधा हुआ छंद है और इसका पूरे गीत में पालन होना चाहिए था। उदाहरण के लिए-
    याद किसी की जिया जलाये,
    तन सुलगे, मन दहके याराँ,
    पलछिन पी का पंथ देखते
    ये दिन निकला

    इसी तरह तीसरी छंद होता-
    मेंहदी, कंगना, बिछवा, पायल,
    सब फीके हैं तुम बिन सजना
    जियरा मचला
    या ऐसा कुछ ... यह तो सिर्फ उदाहरण है पर इससे यह समझा जा सकता है नवगीत का छंद कैसा होना चाहिए।

    राहुल जी यह सही है कि एक पंक्ति दिये जाने से सब गीत काफ़ी कुछ मिलते जुलते हैं। यहाँ कोई सिद्धहस्त कवि नहीं हैं सब शायद पहली बार ही नवगीत पर हाथ आज़मा रहे हैं। तो यह स्वाभाविक भी है। लोगों ने लिखने से पहले एक दूसरे की रचनाएँ पहले पढ़ी होतीं तो वे उससे अलग लिखने का प्रयत्न कर सकते थे। अभी एक दो को छोड़कर किसी ने ठीक से नवगीत लिखना सीख नहीं लिया है इसलिए लौकी के कोफ्ते 16 बार पकाने होंगे। कोई थक न जाए इसलिए सारे गीत जल्दी प्रकाशित कर देते हैं और अगली कार्यशाला में पंक्ति नहीं होगी सिर्फ़ विषय होगा ताकि गीत में विविधता बनी रहे। अलग अलग घटकों पर अंक दे सकते हैं पर तब, जब सबके मन में यह स्पष्ट हो जाए कि नवगीत क्या है। इसके लिए दाहिने कॉलम में गीत और नवगीत तथा नवगीत का वस्तु विन्यास लेख ध्यान से पढ़े जाने चाहिए। कुछ और लेख भी जल्दी ही प्रकाशित करेंगे। नवगीत में छंद, भाषा, भाव और लय प्रधान हैं। रस आवश्यक है और अलंकार गौण हैं। पर पहले सब लोग नवगीत को ठीक से समझ लें। छंद नवगीत का ढाँचा हैं पहले वह ठीक बने।

    अभी तक मानोशी, गौतम राजरिशी और आपके सिवा कोई खुलकर प्रश्न नहीं पूछ रहा है। प्रश्न पूछने से ही बातें साफ़ होंगी क्यों कि नवगीत में कोई वस्तु नहीं है। एक विचार, एक कला, एक आंदोलन है। कुछ ऐब्सट्रैक्ट भी है जिसकी दृष्टि प्राप्त करते समय लगेगा। लगता है कि दूसरी कार्यशाला तक सब काफ़ी परिपक्व हो जाएँगे। तीसरी में अंक दिए जा सकते हैं अगर डॉ.व्योम और शास्त्री जी ठीक समझें। हो सकता है कि दूसरी कार्यशाला के पूरा होते होते समझदारी इतनी अच्छी हो जाए कि अलग अलग अंक देने की ज़रूरत ही न पड़े। सवाल पूछना जारी रखें।

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  8. हाँ मात्राओं के संबंध में एक बात रह गई
    छिप गये भोर के सारे तारे, में 18 मात्राएँ हो गई हैं यहाँ शास्त्री जी का सुझाव के अनुसार छिपे भोर के सारे तारे सही रहेगा।

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  9. "तपती जेठ, नयन का काजल" कितनी सुन्दर पंक्ति है नवगीत के लिए। लावण्या जी के नवगीत पर सभी ने सारगर्भित विचार लिखे हैं। सुन्दर प्रस्तुति के लिए वधाई।
    -डा० व्योम

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  10. "चुप है चँदा,सर्द हवायें,
    पत्ते खडके पगडँडी पे,
    औ' मन मचला!"
    --
    "कह दो तुम से क्या अनजाना "
    ---
    ये सुंदर लगा !
    कुछ प्रश्न थे, पर पूर्णिमा दी और कटारे जी की टिप्पणियों से हल हो गए :)
    सादर शार्दुला

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  11. राहुल जी के मन में बहुत सारे प्रश्न हैं । ज्ञान की पहली सीढी होती है जिज्ञासा अर्थातं प्रश्न। प्रश्न होना महत्वपूर्ण है उत्तर तो कहीं न कहीं से मिल ही जाते हैं। अभी हम लोग नवगीत के शरीर की बात कर रहे हैं आगे उसके अन्तःकरण की चर्चा करेंगे और फिर आत्मा की। आप के अधिकाश प्रश्नों के उत्तर आदरणीया पूर्णिमा जी ने दे दिये हैं। आगे भी आप लोगों की जिज्ञासाओं का यथा सम्भव समाधान करने का प्रयत्न किया जायेगा।

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