10 सितंबर 2009

९- रूप रंग निखरा पड़ा है

चांदी की थाली सरीखा
रूप रंग निखरा पड़ा है

फेंक रजनी की चदरिया
आस की बांधे गठरिया
भूल-बिसरा कर विगत को
दे रहा नूतन खबरिया

शिशु सा हंसता उजाला
दूर तक छितरा पड़ा है
चांदी की थाली सरीखा
रूप रंग निखरा पड़ा है

दहकता है वो अनल सा
ठिठुरता है ठंडे जल सा
प्यास माटी की बुझाने
बावले अम्बर सा बरसा

पुष्प-पातों में कभी फिर
गंध सा पसरा पड़ा है
चांदी की थाली सरीखा
रूप रंग निखरा पड़ा है

सुख -सागर सा घुमड़ता
पीर की घाटी उतरता
मौन सा भारी लगे है
कहकहे सा भी मचलता

स्मृति की रेत सा पल
चतुर्दिक बिखरा पड़ा है
चांदी की थाली सरीखा
रूप रंग निखरा पड़ा है

--प्रवीण पंडित

9 टिप्‍पणियां:

  1. स्मृति की रेत सा पल
    चतुर्दिक बिखरा पड़ा है

    बहुत अच्छा गीत है। बधाई हो। इस बार गीतों के स्तर में हैरानीजनक सुधार हुआ है। विशेषज्ञों की राय का भी इंतज़ार है।

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  2. चांदी की थाली सरीखा
    रूप रंग निखरा पड़ा है

    फेंक रजनी की चदरिया
    आस की बांधे गठरिया
    भूल-बिसरा कर विगत को
    दे रहा नूतन खबरिया

    बहुत खुबसूरत, बहुत बहुत बधाई धन्याद

    विमल कुमार हेडा

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  3. स्मृति की रेत सा पल
    चतुर्दिक बिखरा पड़ा है
    चांदी की थाली सरीखा
    रूप रंग निखरा पड़ा है
    क्या बात है प्रवीण जी...शब्दों के भाव बहुत अच्छे हैं...
    मैं इतना समझता हूँ की... लिखा कुछ भी हो बस दिल में उतरना चाहिए...
    और आपकी रचना तो माशा अल्लाह...
    मीत

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  4. सुख -सागर सा घुमड़ता
    पीर की घाटी उतरता
    मौन सा भारी लगे है
    कहकहे सा भी मचलता

    स्मृति की रेत सा पल
    चतुर्दिक बिखरा पड़ा है
    चांदी की थाली सरीखा
    रूप रंग निखरा पड़ा है

    waah geet bahut madhur tha man bha gaya

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  5. मौन सा भारी लगे है
    कहकहे सा भी मचलता
    सुख -सागर सा घुमड़ता
    पीर की घाटी उतरता

    बिलकुल नई उपमाएँ हैं ये। अच्छी लगीं। हालाँकि गीत छायावाद की तरह कुछ छिपाए रहा। पूरी तरह से खुल नहीं पाया। कि क्या दहकता है अनल सा और क्या पुष्प पांतों में गंध सा पसरा पड़ा है। कुछ दिनचर्या की बात होती, कुछ इसी दुनिया की बत होती,कुछ और स्पष्ट होता तो बेहतर था।

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  6. अत्यन्त सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।

    "स्मृति की रेत से बिखरे पल "
    "पुष्प पातों में फिर गन्ध सा पसरा पड़ा है "
    कितना कुछ बिखरा है ,किन्तु सब सुन्दर ।
    धन्यवाद आपका इतनी मन को छू देने वाली रचना के लिये।

    शशि पाधा

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  7. सुख -सागर सा घुमड़ता
    पीर की घाटी उतरता
    मौन सा भारी लगे है
    कहकहे सा भी मचलता....
    sunder upma achha laga

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