23 सितंबर 2009

१५- यादों की गली में

यादों की गली में
बिखरा सब पड़ा है

धार में
अँसुवन की जो बह भी न पाया
बातें थीं स्वजन की तो
कह भी न पाया
मन की कली कोमल
काँटा सा गड़ा है

वह था
तेरा अहम या मेरा अभिमान
दरकता था दर्पण या
छूटा सम्मान
सोचते थे दोनो
जिद पे क्यों अड़ा है

--वंदना सिंह

8 टिप्‍पणियां:

  1. अलग अलग परिस्थितियों को एक साथ लिखा,
    एक अच्छी कविता के लिए बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद

    विमल कुमार हेडा

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  2. आपकी रचना की गहरे में उतरने को दिल कर रहा है...
    बहुत गहरी रचना की है...
    बेहद अच्छे शब्द...
    मीत

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  3. वह था
    तेरा अहम या मेरा अभिमान
    दरकता था दर्पण या
    छूटा सम्मान
    सोचते थे दोनो
    जिद पे क्यों अड़ा है
    sunder bhav
    badhai
    rachana

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  4. घर में ke sthan par..... dhar me asuwan ki..sahi hai kripya thik kar dijiye

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  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  6. वह था
    तेरा अहम या मेरा अभिमान
    दरकता था दर्पण या
    छूटा सम्मान
    सोचते थे दोनो
    जिद पे क्यों अड़ा है

    बहुत प्रभावी पंक्तियाँ हैं। एक अच्छी रचना के लिये बधाई ।

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  7. chune hue navgeeto men yugboth ke swar smshit hain
    bahu t bahut badhaee.

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