16 सितंबर 2009

११- रिश्तों के आँगन में

रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।

प्रेम की अलमारी में, कब से इसे बंद किया था,
हर नाते की चाप को, मुस्कुरा के सह लिया था,
संबंधों की गठरी से, टुकडा-टुकडा कर गिर पड़ा है,
रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।

तकिया से मन को, कभी सराहने पे दबा लेता,
बिछौना बना ज़िन्दगी के पलंग पे कभी बिछा लेता,
आज ये ख्वाहिशों की लाठी बन, मुझसे लड़ चला है,
रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।

हाथ हैं की, मजबूरियों की जेब में पड़े हैं,
मन के टुकडों को, हम कुचल के चल पड़े हैं,
अंजान प्रेयसी सा, मुँह फेर के पड़ा है,
रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।

---मीत (हितेश कुमार)

10 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेम की अलमारी में, कब से इसे बंद किया था,
    हर नाते की चाप को, मुस्कुरा के सह लिया था,
    संबंधों की गठरी से, टुकडा-टुकडा कर गिर पड़ा है,
    रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।

    एक अच्छे गीत के लिए बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद

    विमल कुमार हेडा

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  2. वाह..बहुत सशक्त अभिव्यक्ति. शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  3. bahut behtrin likha hai aapne.. aapko dhero badhai..chandrapal@aakhar.org

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  4. मेरा गीत प्रकाशित हो गया.. वाह...!!!!
    अब मुझे अपनी स्वाति दी के गीत का भी इंतज़ार है....
    मीत

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  5. हाथ हैं की, मजबूरियों की जेब में पड़े हैं,
    मन के टुकडों को, हम कुचल के चल पड़े हैं,
    अंजान प्रेयसी सा, मुँह फेर के पड़ा है,
    रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।
    ye lines bahut hi sunder lagin
    sunder geet
    badhai
    rachana

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  6. हाथ हैं की, मजबूरियों की जेब में पड़े हैं,
    मन के टुकडों को, हम कुचल के चल पड़े हैं,
    अंजान प्रेयसी सा, मुँह फेर के पड़ा है,
    रिश्तों के आँगन में मन, बिखरा पड़ा है।....
    bhav man ko chhoote haiN
    matraoN kee galtee khatak rahi jaise upar haath haiN kee/ki?
    chhand meiN bhee saman matra ka abhav hai....

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  7. मनोविश्लेषण करती एवं मनोसंघर्ष को रेखांकित करती हुई अच्छी कविता है।

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  8. मीत जी,
    अन्तर्मन की अनुभूति एवं बाह्य परिस्थितियों का चित्रण करता हुआ एक सुन्दर नवगीत है आपका । बधाई।

    शशि पाधा

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