23 सितंबर 2009

१७- कलयुग की इस धारा में

कलयुग की इस धारा में
इन्सान बिखरा पड़ा है

बाँट ली धरती अब अम्बर की बारी है
धुप के टुकड़े कर दिए क्या ये जीत तुम्हारी है
मंदिर के हैं दिए उदास मज्जिद में अजान
खुद से खुद की खो रही देखो अब पहचान
टूट गया कुछ ऐसा के भगवान बिखरा पड़ा है
कलयुग की इस धारा में
इन्सान बिखरा पड़ा है

गर्भ में दी मौत सुनी न चीख उसकी
जिन्दा जला दिया ,है ये भूल किसकी
इंसानों में हैवान इस कदर घुल गए
मानवता के धागे क्यों रेशे रेशे खुल गए
चुभती हैं किरचें इनकी ईमान बिखरा पड़ा है
कलयुग की इस धारा में
इन्सान बिखरा पड़ा है

--रचना श्रीवास्तव

7 टिप्‍पणियां:

  1. कलयुग की इस धारा में
    इन्सान बिखरा पड़ा है

    एक अच्छी कविता के लिए बहुत बहुत बधाई, धन्यवाद

    विमल कुमार हेडा

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  2. आज के सच से अवगत करता नवगीत...
    उत्तम लिखा है...
    बधाई स्वीकारें...
    मीत

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  3. "मानवता के धागे क्यों रेशे रेशे खुल गए
    चुभती हैं किरचें इनकी ईमान बिखरा पड़ा है
    कलयुग की इस धारा में इन्सान बिखरा पड़ा है "।बहुत अच्छी पंक्तियाँ हैं रचना जी । बधाई ।

    शशि पाधा

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  4. सुन्दर गीत है। इसके लिये बधाई स्वीकार हो।
    यह कार्यशाला भी सफलतापूर्वक समाप्त हो रही है। इसकी सबको मुबारक हो।

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  5. मानवीय रिश्तों के बिखरने की बात एक कटु सत्य है जो किसी भी संवेदन शील प्राणी को आह्त कर सकता है ।
    एक विचारोत्जक रचना के लिये धन्यवाद ।

    शशि पाधा

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  6. aap ne mere geet ko pasand kiya aap sabhi ka bhaut bahut dhnyavad .me to abhi sikh rahi hoon.bahut kuchh sikha bhi hai.is ke liye abhivyakti ka dhanyavad
    aap ke sneh shabdon se man bhar aaya
    dhnyavad
    rachana

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  7. गर्भ में दी मौत सुनी न चीख उसकी
    जिन्दा जला दिया ,है ये भूल किसकी
    इंसानों में हैवान इस कदर घुल गए
    मानवता के धागे क्यों रेशे रेशे खुल गए

    बहुत सुन्दर रचना !

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