14 नवंबर 2009

६- बहुत दीप हमने जलाये धरा पर

बहुत दीप हमने जलाये धरा पर
मिटा किन्तु पाये न मन का अंधेरा।

गलित कुप्रथाओं की शापित अहिल्या
है पाषाण बंधन में अब भी बंधी सी
मनुष्यत्व जग में प्रतिष्ठित हुआ कब
रही जाति पंथों की बेड़ी पड़ी सी
कहाँ हैं नई चेतना के दिवाकर
कहाँ हैं वो समता-क्षितिज का सवेरा।

सुलभ हैं अंधेरे सभी को हमेशा
हुआ रश्मियों का ही वंध्याकरण है
जिन्हे सौंप कर घर, हुआ गर्व हमको
उन्होने ही उसका किया अपहरण है
भटक कर के यह सार्थ पहुँचा वहाँ पर
जहाँ पर पड़ा था लुटेरों का डेरा।

इसे दोष देना, उसे दोष देना
विफलता पे अपनी, प्रथा है पुरानी
वहीं आके फिर से खडे़ हो गये हम
जहाँ से शुरू की गयी थी कहानी
सभी दुर्ग ढहते रहे चरमराकर
व्यवस्था ने बस, अपने आसन को घेरा।

बहुत दीप हमने जलाये धरा पर
मिटा किन्तु पाये न मन का अंधेरा॥

--अमित

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सटीक कहा है आपने... आज के दुनिया की यही सच्ची है....
    सम्भवत: इसी को चिराग तले अँधेरा कहा जाता है.... हम बातें तो बहुत ज्ञान की करते हैं पर शायद उन्ही बातों और विचारों को अपने व्यव्हार में नहीं ढल पाते और सोचते हैं की "इतना अँधेरा क्यों है भाई...."

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  2. इस नवगीत की
    प्रारंभिक दो पंक्तियाँ
    इतनी सुंदर हैं
    कि उन्हें पढ़ने के बाद
    शेष गीत पढ़ने का
    मन ही नहीं हुआ!

    संपादक : सरस पायस

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  3. अमित जी,

    सामाजिक एवं राजनैतिक विषमतायों पर चोट करता हुआ यह नवगीत एक कड़ुवा सत्य है। दोषी कौन?
    इस विचारोत्तेजक रचना के लिये बधाई।

    शशि पाधा

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  4. अमितजी,
    बहुत बधाई, इसलिए नहीं कि आपका लेखन सतत पसंद करती हूँ, वरन इसलिए कि यह गीत क्लिष्ट शब्दों के बावजूद मीठा है.
    "मनुष्यत्व जग में प्रतिष्ठित हुआ कब
    रही जाति पंथों की बेड़ी पड़ी सी
    कहाँ हैं नई चेतना के दिवाकर
    कहाँ हैं वो समता-क्षितिज का सवेरा।"

    "सुलभ हैं अंधेरे सभी को हमेशा
    हुआ रश्मियों का ही वंध्याकरण है...
    ...भटक कर के यह सार्थ पहुँचा वहाँ पर
    जहाँ पर पड़ा था लुटेरों का डेरा।

    इसे दोष देना, उसे दोष देना
    विफलता पे अपनी, प्रथा है पुरानी
    वहीं आके फिर से खडे़ हो गये हम
    जहाँ से शुरू की गयी थी कहानी"
    ये सब सुन्दर!...
    "बहुत दीप हमने जलाये धरा पर
    मिटा किन्तु पाये न मन का अंधेरा॥"
    ... पर ये परम सुन्दर!

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