11 जुलाई 2010

०२ : फूला फूल कमल का : रावेंद्रकुमार रवि

मधुर फुहारों ने कुछ
गाकर हमें सुनाया!
फूला फूल कमल का
मन में ख़ुशियाँ लाया!

तालाबों में कमल-कुंज हैं
कमल-कुंज में
है अलि-गुंजन!
बरखा के मौसम में
गाँव-गाँव हरियाया!
फूला फूल ... ... .

बरखा की बूँदों ने छेड़े
साज़ नए कुछ
हौले-हौले!
मुरझाए खेतों को
सुरमय कर सरसाया!
फूला फूल ... ... .

मस्ती-भरी हवा चलती है
मधु सौरभ की
ओढ़ उढ़निया!
वसुधा के आँचल को
मह-महकर महकाया!
फूला फूल ... ... .
--
रावेंद्रकुमार रवि

16 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर रचना ..
    बेहद खूबसूरत

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  2. बधाई, कमाल का प्रवाह, कमाल का नवगीत।

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  3. नवगीत की मर्यादाओं पर खरी उतरती है यह रचना!

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  4. बहुत सुंदर लगी आप की यह कविता.

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  5. रवि जी, एक प्रवहमान गीति रचना से मन को स्पन्दित करने के लिये बधाई पर क्या नवगीत का नव केवल उसकी तकनीक या कहने की शैली में ही होता है या फिर कथ्य में भी? तालाब में कमल, कमल पर अलि, बरखा के मौसम में गांव और खेत का सरसना और ऐसे में मस्ती का आलम तो युग-युगों से देखा, सुना और पढा जाता रहा है। इस सुन्दर रचना में मैं कथ्य का नव तलाशता रहा पर कुछ हाथ नहीं आया।

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  6. रवि जी, आपकी और सुभाष जी की रचनाएँ पहले भी अनुभूति पर देखकर आनंदित हो चुकी हूँ। यहाँ पुनः पढ़कर और भी अच्छा लगा।

    नवगीत में कितना नया हो, क्या नया हो और कैसे नया हो इसकी खोज रचनाकार को ही करनी होती है। यह उसके स्वभाव, जानकारी और रचनाकर्म के समय की मनःस्थिति पर भी निर्भर करता है कि गीत किस दिशा में ढल जाए या ढाला जाए। यह आवश्यक नहीं कि कथ्य, शिल्प, बिंब सबमें सबकुछ नया ही हो। कुछ न कुछ नया, रसमय और जीवन को छू लेने वाला हो तो मेरे विचार से उसको नवगीत कहा जाना चाहिये। एक सरस और मनभावन रचना के लिये बधाई!!

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  7. बढ़िया नवगीत रावेन्द्रकुमार रवि जी,

    ज़रूर कथ्य की ओर इस नवगीत में कवि का आग्रह नहीं रहा है लेकिन वे पहले कुछ बहुत सार्थक नवगीत प्रस्तुत कर चुके हैं। "मधु सौरभ की ओढ़ ओढ़निया" बहुत अच्छा प्रयोग है। शिल्प नया हो तो पाठक जल्दी से खुश हो जाते हैं क्यों कि शिल्प काव्य के वस्त्र हैं। कथ्य आत्मा है, उसकी ओर ध्यान बाद में जाता है। यह स्वाभाविक ही है। इस मनभावन गीत के लिये बधाई!

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  8. माफ करें मुझे तो यह गीत कमल के स्थान पर बरखा गीत ज्यादा लगा. नवीनता के दर्शन लगभग न के बराबर ही रहे. हम आज भी पुराने उपकरणो से संचालित क्यों हो रहे हैं. हमारा खान-पान, रहन- सहन, काम-काज, सब कुछ तो बदल चुका है.

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  9. विमल कुमार हेड़ा12 जुलाई 2010 को 8:15 am बजे

    तालाबों में कमल-कुंज हैं
    कमल-कुंज में
    है अलि-गुंजन!
    बरखा के मौसम में
    गाँव-गाँव हरियाया!
    फूला फूल ... ... .
    पूरा ही गीत अच्छा लगा, परन्तु रविन्द्र कुमार रवि जी की ये पक्तियाँ बहुत अच्छी लगी, बहुत बहुत बधाई
    धन्यवाद।

    विमल कुमार हेड़ा।

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  10. यहाँ मैं मुक्ता जी की बात का समर्थन करूँगी कि रचना में हर ओर नवीनता दिखाई पड़े वह आवश्यक नहीं है। शिल्प, बिंब, कथ्य कहीं भी नवीनता ला सकें तो रचना को नवगीत कहा जा सकता है। पाठशाला में प्रयत्न यह होना चाहिये कि हम अधिक से अधिक नवीनता की ओर अग्रसर हों। इस संदर्भ में सुरुचि का कथ्य भी महत्त्वपूर्ण है। कहाँ पर कितनी और कैसी नवीनता उभरकर आती है उस पर नियंत्रण रखना बहुत अभ्यास माँगता है। पाठशाला में हम इसी अभ्यास का अवसर देते हैं, ताकि सदस्य अपने कथ्य शिल्प और बिम्बों पर तरह तरह के प्रयोग कर उन्हें निखार सकें। ये प्रयोग कभी कभी बहुत सार्थक बन पड़ते है तो कभी उतने सार्थक नहीं भी होते। महत्त्वपूर्ण यह है कि हम प्रयत्न न छोड़ें और काव्य की इस पारंपरिक विधा को नित नवीन करते रहें।

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  11. गीत और नवगीत में वही अन्तर है जो युवक और नवयुवक में।

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  12. मधुर फुहारों ने कुछ
    गाकर हमें सुनाया!
    फूला फूल कमल का
    मन में ख़ुशियाँ लाया!




    मधु सौरभ की
    ओढ़ उढ़निया!
    वसुधा के आँचल को
    मह-महकर महकाया!


    सुंदर....मन-मोहक....

    बधाई स्वीकार करें रवि जी |

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  13. पहली बार इस ब्लॉग पर आया हूँ और लगता है कि बहुत शानदार काम हो रहा है। बधाई। पाठकों की टिप्पणियों में सीखने योग्य बहुत कुछ है। नवगीत के पक्ष में किये जा रहे इस प्रयास को मेरी शुभकामनाएँ।

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  14. मस्ती-भरी हवा चलती है
    मधु सौरभ की
    ओढ़ उढ़निया!
    वसुधा के आँचल को
    मह-महकर महकाया!
    फूला फूल ... ... .
    एक सुरूचिपूर्ण व प्रवाहपूर्ण अभिव्यक्ति
    बधाई।

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