10 मार्च 2011

११. आज की मधुरात्रि में

आज की मधुरात्रि में
इस चाँद को दे दो इजाज़त
और अंचल ओट से खुद तुम लुटाओ चाँदनी

धूलकण चुप चल रहे
सारे गगन भर
बन रहे बहुरंग अंगारे गगन भर
जो दिवस ने पवन बाँहों से बटोरे
साँझ ने भर अंजली
ढारे गगन भर

अग्निवन छू कर हवाएँ आ रही हैं
हर तरफ दहके हुए स्वर
गा रही हैं
इन हवाओं के उठाए राग को
दे दो इजाज़त
और नूपुर नाद से खुद तुम जगाओ रागिनी


हर तरफ झींसी रंगों की
झर रही हैं
इस धरा के वक्ष में
मधु भर रही हैं
इक उनींदी मूर्च्छना छाई हुई है
ये दिशाएँ एक जादू कर रही हैं

धार-लहरों में नशा सा छा रहा है
जल ह्रदय से
हर शिला सहला रहा है
धार-लहरों में रचे उन्माद को दे दो इजाज़त
और आकुल-अंक में
खुद तुम बनो उन्मादिनी


आज की मधुरात्रि में
इस चाँद को दे दो इजाज़त
और अंचल ओट से खुद तुम लुटाओ चाँदनी

--सुनील कुमार श्रीवास्तव

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत भावमयी सुन्दर प्रस्तुति..

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  2. क्या प्रवाह, क्या रागात्मकता, क्या शिल्प मन प्रसन्न हो गया| सुनील भाई इन बातों के आगे तुक मिलाने वाला विषय बहुत छोटा लग रहा है| इतनी सशक्त और रसभरी प्रस्तुति के लिए सहृदय बधाई स्वीकार करें|

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  3. जल लहरों में नशा सा छागया ................बहुत खूब भाव बहुत ही अच्छे हैं
    बधाई
    रचना

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  4. आज की मधुरा़त्रि में
    इस चांद को दे दो इजाजत
    और अंचल ओट से तुम खुद लुटाओ चांदनी

    इस सरल और मन भावन नवगीत के लिए भाई सुनीलजी को हार्दिक आभार।

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