21 अप्रैल 2011

२१. हर सुबहा के समाचार में

हर सुबहा के समाचार में

हर सुबहा के
समाचार में
ख़बर यही बस एक रही

कितनी हत्याएँ और चोरी
कहाँ डकैती आज पडी
बलात्कार से कितनी सड़कें
फिर से देखों आज सडीं
मानवता रो रही अकेली
नयनों में लग गयी झड़ी
भरे चौराहे खडी द्रोपदी
अंतर विपदा रहे खडी

कोर नयन की
भीगी भीगी
सुबह से ही जगी रही

खार हुए वो प्रेम प्रेम के
खेतों की फसलें सारी
क्यूँ अग्नि में झोंकी जाती
वो ममता मूरत प्यारी
भाई चारा दिखे कहीं ना
एक पंक्ति भी मिले नहीं
कैसी है ये पीड़ा मन की
बन जाती नदिया खारी

मन के बरगद
धूप पसरती
छैय्याँ मन की ठगी रही

समाचार को हुआ है क्या
कौन किसे समझायेगा,
फिर वो ही पनघट की बातें
औ चौपालें लायेगा
बुझे हुए हर मन के अंदर
जला आस्था की ज्योति
मुस्कानों के फूल खिलाता
हर एक द्वारे जाएगा

मन मंदिर है
प्रेम का मीते !
बात यही मन सगी रही

-गीता पंडित
दिल्ली ( एन सी आर )

7 टिप्‍पणियां:

  1. गीता जी की कलम से निकले इस सुंदर नवगीत के लिए उन्हें हार्दिक बधाई।

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  2. हमारे समाज में व्याप्त अपराधों और दोषों को
    उजागर करती एक बहुत अच्छी और सुन्दर कविता ...!!

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  3. आज पुस्तक दिवस है सभी को बधाई ...

    पुस्तकें लिखें, खरीदें, उपहार दें या पढ़ें कोइ भी काम...हिन्दी की पुस्तकों की वृद्धि में सहायक होगा और हिन्दी साहित्य की प्रगति में भी...आभार...

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  4. अच्छा प्रयास है। कथ्य को और मजबूती से बाँधते हुए अतिरिक्त पंक्तियों को निकाला जा सकता था।

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  5. pida ko bakhubi pesh kiya hai aapne ,,,, bahut sundar ... Gita Ji shubhkamanayen

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