1 जून 2011

१. कब जंगल में टेसू फूले

हम हैं वासी महानगर के
कैसे जानें
कब जंगल में टेसू फूले

छोटा-सा है फ्लैट हमारा
जोत नहीं आती सूरज की
दादी से थी सुनी कहानी
वंशी-मादल के अचरज की 
कजरी गातीं थीं
काकी जो 
उसको भी काफ़ी कुछ भूले

नये वक्त के हाट-लाट का
रोग हमें है ऐसा व्यापा
हमने सूरज-चाँद-सितारे
सबको है पर्दों से ढाँपा  
याद रहे अब
हमको कैसे
कहाँ टाँगते थे हम झूले 

रोज़ बाँचते हम ख़बरों में
सकल देस की हुई तरक्की
बोतल-बंद बिक रहा पानी
बिकी रात अम्मा की चक्की
बुआ करें क्या
आँख न चढ़ते
उनके लाये हुए छ्ठूले 

--कुमार रवीन्द्र

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर नवगीत है। कुमार रवीन्द्र जी तो साधारण शब्दों में भी जादू भर देते हैं। बहुत बहुत बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  2. इस कार्यशाला की शुरूआत
    बहुत सशक्त नवगीत से हुई है!

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही सुन्दर नवगीत. यह कार्यशाला अपने आप में अनूठी है.

    जवाब देंहटाएं
  4. रवीन्द्र जी द्वारा श्री गणेश अर्थात सफल आयोजन की पूर्ण गारंटी| बहुत सुंदर नवगीत................ छठूले शब्द का प्रयोग बड़ा ही मनोहारी है, मान्यवर रवीन्द्र जी से निवेदन है कृपया इस शब्द को ससंदर्भ विवेचित करने की कृपा करें| ऐसे दुर्लभ शब्द हमारी थाती होते हैं, लिहाजा इन्हें तदर्थ समझना जरूरी लग रहा है|

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सशक्‍त अभिव्‍यक्ति, बधाई स्‍वीकारें।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत ही सुंदर गीत है,
    कृपया क्या बताएंगे कि 'छ्ठूले' का क्या अर्थ है?

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुन्दर प्रस्तुति, धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  8. सच में बहुत ही अच्छा नवगीत है. वैसे भी रविन्द्र जी शब्दों के जादूगर है. उनके लिखे नवगीतों की बात ही कुछ और है.

    जवाब देंहटाएं
  9. नये वक्त के हाट-लाट का
    रोग हमें है ऐसा व्यापा
    हमने सूरज-चाँद-सितारे
    सबको है पर्दों से ढाँपा
    याद रहे अब
    हमको कैसे
    कहाँ टाँगते थे हम झूले
    सुंदर अभिव्यक्ति .इतना सुंदर गीत कम ही पढने को मिलता है
    बहुत बहुत बधाई
    सादर
    रचना

    जवाब देंहटाएं
  10. पलाश जीवन में अतिशय संघर्ष करने वाले आम आदमी का प्रतीक बनकर भारतीय मनीषा के समक्ष उभरा है। लोक मानस में पलाश सदियों से रचा बसा है। गाँव के खेतिहर मजदूर से लेकर चरवाहों तक पलाश की पैठ है, या यूँ समझिये कि पलाश भी उन्हीं का हमराही है, उन्हीं में से एक है ...... जो सदियों से वहीं के वहीं पड़े हुये हैं " ढाक के तीन पात" बनकर। जबकि दावा यहय किया जा रहा है कि सकल देश की तरक्की हो चुकी है, परन्तु कवि तो कवि है वह खुद देखता है सि्र्फ अपनी आँखों से और जो देखता है उसे लिखने की हिम्मत भी एक कवि ही रखता है। यही संकेत कुमार रवीन्द्र के इस पलाशीय अभिव्यक्ति से युक्त नवगीत में दिखाई दे रहा है-
    रोज़ बाँचते हम ख़बरों में
    सकल देस की हुई तरक्की
    बोतल-बंद बिक रहा पानी
    बिकी रात अम्मा की चक्की
    कुमार रवीन्द्र जी को बहुत बहुत वधाई विशेषकर इस नवगीत के लिये।

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है। कृपया देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करें।