2 अक्तूबर 2011

६. दिन उत्सव के

दिन उत्सव के
दीप लिये हैं खड़े द्वार पर
उन्हें नमन है

जोत उन्हीं दीयों की
सबको उजियारेगी
लखमी मइया
सबके दुख-विपदा टारेगी

दिन उत्सव के
ड्योढ़ी-ड्योढ़ी दीप रहे धर
उन्हें नमन है

सूरज भी है
मेघों के घेरे से निकला
यही प्रार्थना
छँटे अँधेरा जो है पिछला

दिन उत्सव के
नेह रहे बो, साधो, घर-घर
उन्हें नमन है

यही दुआ है
ताल-कुएँ हों कभी न खारे
शोक-मोह जो रहे आसुरी
बीतें सारे

दिन उत्सव के
जगा रहे सुख सबके भीतर
उन्हें नमन है

-कुमार रवीन्द्र

8 टिप्‍पणियां:

  1. उत्सवधर्मिता को प्रकट करने वाला सुंदर गीत.

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  2. बहुत सशक्त, सारगर्भित, सरल, सुंदर नवगीत है। बहुत बहुत बधाई कुमार रवींन्द्र जी को इस नवगीत के लिए

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  3. यही दुआ है
    ताल-कुएँ हों कभी न खारे
    शोक-मोह जो रहे आसुरी
    बीतें सारे

    दिन उत्सव के
    जगा रहे सुख सबके भीतर
    उन्हें नमन है
    अति उत्तम नवगीत के लिए बहुत बहुत बधाई
    सादर
    रचना

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  4. जोत उन्हीं दीयों की
    सबको उजियारेगी


    एक आशावादी
    सुंदर नवगीत के लियें मेरी बधाईयाँ आपको

    सादर
    गीता पंडित

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  5. सरस सारगर्भित नवगीत हेतु साधुवाद.

    Acharya Sanjiv Salil

    http://divyanarmada.blogspot.com

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  6. सरल, सरस और सुंदर नवगीत के लिए बधाई

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  7. सूरज भी है
    मेघों के घेरे से निकला
    यही प्रार्थना
    छँटे अँधेरा जो है पिछला

    दिन उत्सव के
    नेह रहे बो, साधो, घर-घर
    उन्हें नमन है

    कुमार रवीन्द्र जी बहुत सुंदर अभिव्यक्ति बधाई स्वीकारें इस सुंदर नवगीत के लिये
    प्रभुदयाल छिंदवाड़ा

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