हरे रिश्तों की, हुई बंजर ज़मीं
स्नेह वर्षा को तरसता
आदमी
माँ पिता ने
बीज सींचे स्वार्थ बिन
सोच थी देंगे सुफल, ये एक दिन
मगर यह क्या? पर्ण पीले पड़ गए,
उड़ गई गहरी जड़ों से
भी नमी
बाँध सपने,
चले, अपने छोडकर
आशियाँ से, तार हिय के तोड़कर
यह न सोचा, क्या मिलेगा शहर में
सुख की चादर त्याग, ओढ़ी
खुद गमी
अब तो घर
सुनसान, चेहरे म्लान हैं
लुट चुकी खुशियाँ पिटे अरमान हैं
फटी गठरी और बिखरे ख्वाब सब
भीड़ है, पर है अकेला
आदमी।
-कल्पना रामानी
मुंबई
स्नेह वर्षा को तरसता
आदमी
माँ पिता ने
बीज सींचे स्वार्थ बिन
सोच थी देंगे सुफल, ये एक दिन
मगर यह क्या? पर्ण पीले पड़ गए,
उड़ गई गहरी जड़ों से
भी नमी
बाँध सपने,
चले, अपने छोडकर
आशियाँ से, तार हिय के तोड़कर
यह न सोचा, क्या मिलेगा शहर में
सुख की चादर त्याग, ओढ़ी
खुद गमी
अब तो घर
सुनसान, चेहरे म्लान हैं
लुट चुकी खुशियाँ पिटे अरमान हैं
फटी गठरी और बिखरे ख्वाब सब
भीड़ है, पर है अकेला
आदमी।
-कल्पना रामानी
मुंबई
विषय को पूर्णतया: शब्दों में बांधता यह अनुपम नवगीत कितने प्रश्न चिन्ह लिए हुए है | वास्तव में क्या खोया -क्या पाया ?
जवाब देंहटाएंबहुत ही सशक्त रचना के लिए कल्पना जी को बधाई |
रिश्तों की बंजरता और इंसान की तनहाइयों को रेखांकित करता सशक्त गीत. बहुत बहुत बधाई आ कल्पना जी को.
जवाब देंहटाएंआ० रामानी जी का सुन्दर नवगीत. ब्याज की चाह में मूल को गंवाने का सुन्दर वर्णन. बधाई कल्पना जी को.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा नवगीत रचा है कल्पना जी ने, बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएं'अब तो घर
जवाब देंहटाएंसुनसान,चेहरे म्लान हैं
लुट चुकी खुशियाँ पिटे अरमान हैं
फटी गठरी और बिखरे ख्वाब सब
भीड़ है, पर है पर है अकेला आदमी'
बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति ....।
एक बढ़िया नवगीत के लिये बधाई ।
भीड़ है, पर है अकेला
जवाब देंहटाएंआदमी।
बहुत सुन्दर गीत है .....कल्पना जी
माँ पिता ने
जवाब देंहटाएंबीज सींचे स्वार्थ बिन
सोच थी देंगे सुफल, ये एक दिन
मगर यह क्या? पर्ण पीले पड़ गए,
उड़ गई गहरी जड़ों से
भी नमी
बेहतरीन नवगीत
वाह ! इस भाव को कई बार पढ़ा ....लेकिन आपकी रचना अंत:स को छू गयी ......बहुत सुन्दर कल्पनाजी !!!
जवाब देंहटाएंकल्पना रामानी जी का यह गीत अच्छा है| विशेष रूप से ये पंक्तियाँ बड़ी मार्मिक बन पड़ी हैं -
जवाब देंहटाएं'माँ पिता ने
बीज सींचे स्वार्थ बिन
सोच थी देंगे सुफल, ये एक दिन
मगर यह क्या? पर्ण पीले पड़ गए,
उड़ गई गहरी जड़ों से
भी नमी'
उन्हें एवं नवगीत पाठशाला को साधुवाद!
बहुत सुंदर नवगीत कल्पना जी
जवाब देंहटाएंविषयानुकूल पूर्णता लिए हुए इस नवगीत की हर पंक्ति बहुत खूब है. रामानी जी को बहुत-बहुत बधाई !
जवाब देंहटाएं"बाँध सपने,
जवाब देंहटाएंचले, अपने छोडकर
आशियाँ से, तार हिय के तोड़कर
यह न सोचा, क्या मिलेगा शहर में
सुख की चादर त्याग, ओढ़ी
खुद गमी ".सुंदर नवगीत के लिए बधाई कल्पना रामानी जी!
डा. सरस्वती माथुर
बहुत सुन्दर कसावटयुक्त नवगीत है, वधाई ठकुरेला जी को इस सुन्दर नवगीत के लिए। "चन्द सिक्के बहुत भारी / जिन्दगी के गीत पर" क्या कहने इन पंक्तियों के, संघर्षरत आम आदमी की विवशता को एक सटीक शब्द दे दिए हैं।
जवाब देंहटाएंअब तो घर
जवाब देंहटाएंसुनसान, चेहरे म्लान हैं
लुट चुकी खुशियाँ पिटे अरमान हैं
फटी गठरी और बिखरे ख्वाब सब
भीड़ है, पर है अकेला
आदमी।
विषय का निर्वहन अक्षरशः करते नवगीत के लिये हार्दिक बधाई.