5 नवंबर 2013

२. दीप कहीं तुम बुझ न जाना

दीप कहीं तुम बुझ न जाना !

छेददार माना कि द्याली
होती जाए प्रतिपल खाली
थी तो बहुत कपास खेत में
किंतु चुरा ले गए मवाली

रात अमावस की घिर आई
तुम तो अपना धर्म निभाना !

हवा चल रही है तूफानी
राह नहीं जानी-पहचानी
साथ-साथ चलने की कसमें
निकलीं सब की सब बेमानी

अब तो नियमित क्रिया बन गई
सूरज का असमय ढल जाना!

अब न दीप जलाने वाले
खाने लगे बचाने वाले
धरे हाथ पर हाथ मूक हैं
औरों को समझाने वाले

ऐसी विकट घड़ी में दीपक
बाती एक उधार जलाना !

-ओम प्रकाश तिवारी
मुंबई

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