7 नवंबर 2013

४. दीप जलेंगे आँगन–आँगन

दीप जलेंगे आँगन–आँगन
ऐसा भी
हो सकता है

समझ–गिलहरी
मन के हर कोने डोलेगी
कड़वाहट पी नस–नस में मिठास घोलेगी
नफरत स्वयं नेह की साँकल खटकायेगी
प्रीत पलेगी मधुवन–मधुवन
ऐसा भी
हो सकता है

दिन बंजारा
घर–घर फेरी पर आयेगा
गठरी में भर सुख की सौगातें लायेगा
संतोषों की फसल लोभ पर जब आयेगी
अमन खिलेगा उपवन–उपवन
ऐसा भी
हो सकता है

सूरज के घर
क़ैद उज़ाले जब छूटेंगे
बीज–बीज हरियाली के अँखुये फूटेंगे
उजड़ेंगे चन्दन–वन से सर्पों के डेरे
महक उठेंगे कानन–कानन
ऐसा भी
हो सकता है

आँगन में
उठती दीवारें भी टूटेंगीं
अपनों से अपनी बाँहें कब तक रूठेंगीं
कभी खुलेंगे हठी अहम के बंद किवाड़े
जागेगा सोया अपनापन
ऐसा भी
हो सकता है

हर द्वारे
खुशियों की गौरैया आयेगी
गीत प्रगति की कोयल शाख–शाख गायेगी
मुंड़ेरों पर बेल चढ़ेगी उजियारे की
दीप जलेंगे आँगन–आँगन
ऐसा भी
हो सकता है

–कृष्ण नन्दन मौर्य
प्रतापगढ़

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