पीला-श्वेत-गुलाबी जिसका,
रूप सभी को भाया है।
लू के गर्म थपेड़े खाकर,
फिर कनेर मुस्काया है।
आया चलकर खुला खजाना,
फिर से आज कुबेर का।
निर्धन के आँगन में पनपा,
बूटा एक कनेर का।
कोमल और सजीले फूलों ने,
मन को भरमाया है।
लू के गर्म थपेड़े खाकर,
फिर कनेर मुस्काया है।।
कितनी शीतलता देती है,
आँखों को ये हरियाली।
जब पत्तों से छनकर आती,
पवन बसन्ती मतवाली।
सुबह सवेरे गौरय्या ने,
मीठा राग सुनाया है।
लू के गर्म थपेड़े खाकर,
फिर कनेर मुस्काया है।
पेड़ लगाओ-धरा बचाओ,
धरती का शृंगार करो।
आँगनबाड़ी के सुमनों से,
सच्चा-सच्चा प्यार करो।
ग्रीष्मकाल में बिरुवा ही तो
देता शीतल छाया है
लू के गर्म थपेड़े खाकर,
फिर कनेर मुस्काया है।
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक'
खटीमा
रूप सभी को भाया है।
लू के गर्म थपेड़े खाकर,
फिर कनेर मुस्काया है।
आया चलकर खुला खजाना,
फिर से आज कुबेर का।
निर्धन के आँगन में पनपा,
बूटा एक कनेर का।
कोमल और सजीले फूलों ने,
मन को भरमाया है।
लू के गर्म थपेड़े खाकर,
फिर कनेर मुस्काया है।।
कितनी शीतलता देती है,
आँखों को ये हरियाली।
जब पत्तों से छनकर आती,
पवन बसन्ती मतवाली।
सुबह सवेरे गौरय्या ने,
मीठा राग सुनाया है।
लू के गर्म थपेड़े खाकर,
फिर कनेर मुस्काया है।
पेड़ लगाओ-धरा बचाओ,
धरती का शृंगार करो।
आँगनबाड़ी के सुमनों से,
सच्चा-सच्चा प्यार करो।
ग्रीष्मकाल में बिरुवा ही तो
देता शीतल छाया है
लू के गर्म थपेड़े खाकर,
फिर कनेर मुस्काया है।
डॉ. रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक'
खटीमा
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