24 जुलाई 2014

२६. शहर की बरसात - रामशंकर वर्मा

चिपचिपाती
उमस के संग ऊब
यारो!
शहर की बरसात भी क्या खूब

खिडकियों से फ्लैट की
दिखते बलाहक
हों कि जैसे सुरमई रूमाल
उड़ रहा उस पर
धवल जोड़ा बलाक
यूँ कि 'रवि वर्मा' उकेरें
छवि कमाल
चंद बूँदे अफसरों के दस्तख़त सी
और इतने में खडंजे
झुग्गियाँ जाती हैं डूब

रेनकोटों
छतरियों बरसातियों की
देह में निकलें हैं पंख
पार्कों चिड़ियाघरों से
हाई वे तक
बज उठे हैं प्रणय के शत शंख
आधुनिकाएँ
व्यस्त प्रेमालाप में
डाल बाहें बाँह में
फिरती फुदकती
संग है महबूब

इन्द्रधनुषी
छत्र सिर पर तान रिक्शे
चल दिए उन्मुक्त
रेनी डे मनाने
डायरी
ट्यूशन टशन के बीच पिसती
ज़िन्दगी को मिल गये जैसे ख़जाने
ठूँठ होते
शहर की बीवाईयों में
फिर लहलहा उट्ठी है डूब

-रामशंकर वर्मा

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