5 जुलाई 2014

२१. कनेर

ढूह झहरता,
रह-रह चींटी चपल उग्र है
ताप पड़ा है.. !
सुलग उठे हैं धूल-बगूले
किन्तु अड़ा है सौम्य कनेर.. !

दमन चक्र की त्वरा निरंकुश
क्रूर तपन के तेवर भारी
निःस्वर नभ की निर्जल बदली
खीझ चिढ़ी-सी
तन-मन तारी

प्रहर विवश दुर्दम्य दिशायें
स्वयं अड़ा है सौम्य कनेर !

भरी-भरी आँखों में रोमिल
कुछ सूखी कुछ गीली बातें
पिछवाड़े की खिड़कीवाली
नयन-कोर-सी
भीगी रातें

ढाँढस देता-सा ऐसे में
नम्र खड़ा है सौम्य कनेर !

श्वेत-पीत है,
केसरिया है,
अर्थ रंग के रहे न शाश्वत
करता है निर्वाह किन्तु ये
साध रहा है
रोज़ा-अक्षत !

प्रजातंत्र निर्पेक्ष सबल हो..
मान्य ’धड़ा’ है सौम्य कनेर.. !

-- सौरभ पाण्डेय
इलाहाबाद

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