(कार्यशाला 2 - का विषय है "गर्मी के दिन" लेकिन नवगीत में इन शब्दों का प्रयोग होना ज़रूरी नहीं है। रचना भेजने की अंतिम तिथि 31 मई है।)
रंगों से लदते थे वन-उपवन,
लील गया उन सबको पतझड़,
जाने कितने मौसम बदले,
मगर प्यार का रंग ना बदला...
जाने कैसे, कब, हम रंगाये,
विरह के अगनित अश्रु बहाए,
पर मेरे मन की चादर से,
तेरे प्यार का रंग ना निकला...
भौतिक कठिनाई से सब थर्राए,
क्षणिक अनुरक्ति भी मुरझाए,
पीड़ा की भीषण ज्वाला से,
मगर प्यार का रंग ना पिघला...
समय का पहिया घूमता जाए,
धीरे से यौवन छोड़ बुढापा आए,
अविरत जीवन में परिवर्तन आया,
मगर प्यार का ढंग ना बदला...
भौतिक कठिनाई से सब थर्राए,
जवाब देंहटाएंक्षणिक अनुरक्ति भी मुरझाए,
पीड़ा की भीषण ज्वाला से,
मगर प्यार का रंग ना पिघला...
बहुत सुन्दर गीत है.
बधाई.
जयंत चौधरी का प्रयास अच्छा है। काफ़ी कुछ कहने के लिए है, भाषा का मुहावरा सही है और शब्दों से अच्छा परिचय है। लय और रवानी पर थोड़ी सी मेहनत करनी है। आशा है अगला नवगीत और भी अच्छा होगा।
जवाब देंहटाएंजयन्त जी ने बहुत अच्छा नवगीत लिखा है किन्तु तीनों अन्तरों में लय ठीक नहीं बन रही है । कुछ शब्दों को इधर उधर करने से लय बनेगी जैसे॰॰
जवाब देंहटाएं१ ने कब कैसे, , हम रंगाये,
विरहाश्रु अनगिनत बहाए,
पर मेरे मन की चादर से,
तेरे प्यार का रंग ना निकला...
२ भौतिक कठिनाई से थर्राए,
अनुरक्ति क्षण॰क्षण मुरझाए,
पीड़ा की भीषण ज्वाला से,
मगर प्यार का रंग ना पिघला...
३ समय चक्र घूमता है ऐसे
बाल युवा बुढापा हो जैसे,
परिवर्तन जीवन में आया,
मगर प्यार का ढंग ना बदला...
बहुत सुन्दर गीत है.
जवाब देंहटाएंबधाई.
"क्षणिक अनुरक्ति भी मुरझाये" थोड़ा सा पढ़ने में अटपटा लग रहा है। कटारे जी का सुझाव सटीक बैठ रहा है...
जवाब देंहटाएंसुंदर शब्दों का मेल लेकिन
vichar bahut spasht aur sashakt hain.
जवाब देंहटाएंजयन्त जी के नवगीत में नवगीत के कई गुण तो हैं पर अभी बिखरा-सा है। अगला नवगीत और अच्छा होगा यह उम्मीद है।
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