23 मई 2009

16-भावना कुंअर

शाख पर फूल,
फूलों पर भँवरे।
कितने ही उपवन,
आँधी में उजड़े।
पर फूलों में बसे,
प्यार का रंग न बदला।

आज तक भी,
तेज तूफान में।
आसमान में उड़ते,
पंछी की उडान में।
टूटते पंखों से
गिरने का ढंग न बदला।

समय की सलाईयाँ,
आज भी बुनती।
जीवन धागे से,
पलों को चुनती।
पर जीवन डोर से,
सांस का रंग न बदला।

10 टिप्‍पणियां:

  1. भावना की रचना सुंदर है, विचार कवितामय हैं नए बिम्ब मोहक हैं लेकिन गीत की विधा में नहीं ढली है। यह सब गीत में ढलता तो और भी आकर्षक होता। शास्त्री जी की टिप्पणी इस विषय को विस्तार से बता सकेगी।

    जवाब देंहटाएं
  2. कितनी सुंदर कविता है। मगर नवगीत तो नहीं है शायद। सुंदर भाव।

    जवाब देंहटाएं
  3. समय की सलाईयाँ,
    आज भी बुनती।
    जीवन धागे से,
    पलों को चुनती।
    पर जीवन डोर से,
    सांस का रंग न बदला।

    ये पंक्तियाँ मुझे बहुत अच्छी लगी।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर और कोमल रचना!!

    जवाब देंहटाएं
  5. भावना जी की इस कविता और नवगीत के मध्य एक लम्बा अंतराल है, नवगीत की उस सुरम्य उपत्यिका तक पहुँचने के लिए कुछ अतिरिक्त सतर्कता युक्त श्रम करना ही होगा।

    जवाब देंहटाएं
  6. दूसरा अंतरा थोड़ा सा उलझा गया
    "आज तक भी" कहना

    किंतु पूरी रचना बहुत अच्छी बन पड़ी है भावना जी

    जवाब देंहटाएं
  7. यह एक भाव प्रणव काव्य रचना है जो न तो गीत या नव गीत के मानकों पर खरी है न ही छंद हीन है. संकेत यह की नव गीत लिखते समय स्थाई की पंक्तियों की संख्या यथा संभव सामान हो तथा अंतरे की पंक्तियों की संख्या सामान हो. पंक्तियों का पदभार सामान होना गीत की शर्त है. नवगीत कुछ ढील देता है. पंक्तियाँ कुछ छोटी बड़ी हो सकती हैं पर कुल मिलाकर पद का पदभार संतुलित हो. शब्दों के पर्यायवाची बदल-बदलकर संतुलन लायें. अभ्यास हो जाने पर अपने आप सही शब्द आने लगेगा.

    जवाब देंहटाएं
  8. भावना जी का नवगीत भी
    मुझे पसँद आया --
    अच्छे प्रयास के लिये उन्हेँ बधाई
    -लावण्या

    जवाब देंहटाएं
  9. भावना जी के गीत की थोड़ी सी शल्यचिकित्सा कर रहा हूँ .इससे अच्छी तरह समझा जा सकता है।उन्हीं के शब्दों में कुछ इधर से उधर करता हूँ
    शाखाओं पर फूल
    और फूलों पर भंवरे
    कितने ही उपवन,
    अंधी आँधी में बिखरे
    पर फूलों में बसे,
    प्यार का रंग न बदला।
    आज तलक तो,
    बहुत तेज तूफानों में भी।
    आकाशी पंछी की,
    मुक्त उडानों भी में भी।
    सतत टूटते पंखों के
    गिरने का ढंग न बदला।

    समय सलाई वही
    आज भी बुनती जीवन धागे ,
    पल पल कमती हई दूरियाँ
    कोई कितना भागे।
    जीवन की डोरी से ज्यों,
    सांसों का रंग न बदला।

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है। कृपया देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करें।