5 मई 2009

3- मानोशी

बदले
नयन स्वप्न बहुतेरे
मगर प्यार का रंग न बदला

हूक प्रेम की शूल वेदना
अंतर बेधी मौन चेतना
रोम-रोम में छवि बसी जो
हर कण अश्रु सिक्त हो निखरा
आड़ी-तिरछी रेखाओं का
धूमिल-धुंधला अंग न बदला

बदले
नयन स्वप्न बहुतेरे
मगर प्यार का रंग न बदला

छल मिथ्या के इंद्रधनुष में
बंध के रेशा-रेशा पागल
क्षितिज मिलन की आस में जोगी
आशाओं का प्यासा सागर
दुनिया छोड़ी लाज भुलाई
युग-युग से ये ढंग न बदला

बदले
नयन स्वप्न बहुतेरे
मगर प्यार का रंग न बदला

--मानोशी

12 टिप्‍पणियां:

  1. मानोशी जी के परिपक्व नवगीत में गीत की समस्त आवश्यकताओं को पूरा किया गया है। लय पूर्णतः सधी हुई है। प्रवाह में कहीं कोई रुकावट नहीं है। भाव सम्प्रेषण में सक्षम और कोमल शब्दावली से सज्जित यह गीत माधुर्य गुण से परिपूर्ण है फिर भी .बहुत सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर दो स्थानों पर कुछ कटकता सा है। एक तो "रोम-रोम में छवि बसी जो " यहाँ छबि को छबी पढना पड़ रहा है। इसके स्थान पर " रोम रोम में रमी बसी छबि" करने से सोन्दर्य बढेगा । दूसरा "छलमिथ्या के इंद्रधनुष में" को " मिथ्या छल के इन्द्रधनुष में " कहना ज्यदा उचित होगा।
    शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

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  2. मानोसी जी का नव गीत भाव प्रधान है.
    श्रेष्ठ परिकल्पना है.
    शब्द विन्यास देखें >
    "हर कण अश्रु सिक्त हो निखरा
    आड़ी-तिरछी रेखाओं का"
    बधाई
    - विजय

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  3. तेरे सिवा
    तेरे लिये
    हर गीत में तैरे
    बहुतेरे तेरे
    मानोशी जी - शब्द अच्छे हैं, और आपने उन्हें परोसा भी बड़े प्यार से है.

    कुछ प्रश्न.

    1.
    बदले
    नयन स्वप्न बहुतेरे
    इसे ऐसे क्यों नहीं लिखा?

    बदले नयन स्वप्न बहुतेरेएक पंक्ति में क्यों नहीं? दो क्यों?

    2.
    बदले
    नयन स्वप्न बहुतेरे
    मगर प्यार का रंग न बदले
    मेरे विचार में पहली दो पंक्तियों का यदि तीसरी पंक्ति से कोई नाता है तो 'बदला' के स्थान पर 'बदले' होना चाहिए. वरना खटकता है.


    3.
    दुनिया छोड़ी लाज भुलाई
    के स्थान पर
    'दुनिया छोड़े लाज भुलाए'
    ज्यादा सही लगेगा. क्योंकि इनके कर्ता या तो रेशा-रेशा हैं, या जोगी है, या सागर है.

    जोगी ने दुनिया छोड़ी - सही है
    जोगी दुनिया छोड़े - सही है
    जोगी दुनिया छोड़ी - खटकता है

    लेकिन ये सब लाज क्यों भुलाने लगे?

    4.
    'युग-युग से ये ढंग न बदला'
    के स्थान पर
    'युग युग से ये ढंग न बदले' सही लगता है. क्योंकि आपने एक से ज्यादा ढंग गिनाए है इस अंतरे में


    अब बस 4 प्रश्न पर ही बात समाप्त करता हूँ. लगता है परिपक्व गीत को समझ पाना मेरे बस की बात नहीं है.

    वैसे भी किसी ने कहा है कि

    जो तुरंत समझ में आ जाए उसे चुटकला कहते हैं
    जो कल समझ में आएगी उसे कला कहते हैं
    जो कभी समझ न आए उसे कविता कहते हैं
    सद्भाव सहित
    राहुल
    http://mere--words.blogspot.com

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  4. "हर कण अश्रु सिक्त हो निखरा
    आड़ी-तिरछी रेखाओं का"
    बधाई

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  5. अद्‍भुत
    शब्दों की कोमलता और उनका एकदम लय,छंद पर सटीक बैठे होने की सहजता पर अचंभित हूँ...
    बहुत सुंदर है ये गीत मानोशी

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  6. मानोशी जी,
    वाह! सुंदर नवगीत !
    ये पंक्ति बहुत देर तक मन पे छायी रही:
    "क्षितिज मिलन की आस में जोगी"
    बधाई !
    सादर शार्दुला

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  7. कोमलकांत पदावली...भावः माधुर्य तथा आलंकारिक नाद सौंदर्य से गीत सज्जित है. प्रथम पद की पहली दो पंक्तियों में १६-१६ मात्राएँ हैं, तीसरी पंक्ति में १५ मात्राएँ होने से 'छवि' को 'छवी' पढना पड़ेगा. 'रोम-रोम में रूप बसा जो' करें तो आनुप्रसिक छटा में निखर के साथ पद संतुलन हो सकेगा. श्रुत्यानुप्रास, व्रंत्यानुप्रास, अन्त्यानुप्रास का सटीक समन्वय है.

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  8. सुंदर गीत के लिए मानोशी को बधाई। शास्त्री जी और आचार्य जी के सुझाव ध्यान देने योग्य हैं।

    कुछ टिप्पणियों से लग रहा है कि इस कविता का भावार्थ बहुत स्पष्ट नहीं है। अतः सुविधा के लिए इसका अन्वय प्रस्तुत है। इस गीत में प्रेमी हृदय वाले किसी व्यक्ति का वर्णन किया गया है। अन्वय लगभग इस प्रकार है-

    (प्रेमी हृदय वाले व्यक्ति के) नयन बदले, बहुतेरे स्वप्न भी बदले मगर प्यार का रंग न बदला।

    प्रेम की हूक शूल की वेदना (जैसी है जो) अंतर (की) मौन चेतना (को भी) वेध देती है। (लेकिन) रोम रोम में जो छवि बसी है (वह ऐसी निराली है कि) हर अश्रुकण (भी उसके सहवास से) सिक्त होकर निखर जाते हैं। (और इतना धुलने पर भी मन में बसी उस) आड़ी-तिरछी रेखाओं (वाली छवि का) धूमिल-धुंधला अंग न बदला।

    (उस प्रेमी हृदय वाले व्यक्ति ने) छल (और) मिथ्या के इंद्रधनुष में रेशा-रेशा पागल (की तरह) बंध के (उसी प्रकार) जोगी (की तरह) दुनिया छोड़ी और लाज भुलाई (जैसे) आशाओं का प्यासा सागर क्षितिज (से) मिलन की आस में (सीमाओं का बंधन छोड़ कर ज्वार के रूप में व्यवहार करता है)। ये ढंग
    युग-युग से (चला आ रहा है और आज भी) न बदला।

    कोष्ठक वाले शब्द कविता में नहीं हैं किंतु कविता का अर्थ स्पष्ट करने के लिए दिए गए हैं। प्रतिप्रश्नों का पुनः स्वागत है।

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  9. सभी का बहुत बहुत शुक्रिया। कटारे जी, सलिल जी और पूर्णिमा दी की टिप्पणियाँ सहेज कर रखने लायक हैं। पूर्णिमा दी का फिर एक बार शुक्रिया कि उन्होंने इस कविता का भावार्थ बताया। ये कार्यशाला सचमुच ही गुरुकुल सा बनता जा रहा है। मुझे खुशी है कि इस सीखने सिखाने के आश्रम में मैं भी शामिल हूँ।

    मानोशी

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  10. बहुत सुन्दर गीत...लयात्मक और भावपूर्ण.

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  11. मैं नवगीत के तकनीकी पक्ष को तो ज्यादा नहीं समझती ...लेकिन इस गीत में भावनाओं और संवेदनाओं को बहुत बढ़िया ढंग से संजोया गया है.
    पूनम

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  12. मानोशी प्रवाह और लय के मामले में सिद्धहस्त हैं। उनका यह नवगीत एक श्रेष्ठ नवगीत के बहुत निकट है। इस नवगीत के प्रतीक नयापन लिए हुए हैं। शब्दों में नयापन है, लय में नयापन है, कथ्य में भी नयापन है।
    "रोम-रोम में छवि बसी जो" पंक्ति पर थोड़ा विचार करना अपेक्षित प्रतीत हो रहा है। एक मात्रा कम होने से लय वाधित हो रही है। मानोसी से अभी हिन्दी साहित्य संसार को बहुत सुन्दर गीत और नवगीत मिलने की पूरी उम्मीद है। इस सुन्दर नवगीत के लिए उन्हें हार्दिक वधाई।
    -डा० व्योम

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