10 जुलाई 2009

१- मन की बात

मन की बात
बताऊँ, रामा !
सुख की कलियाँ
गिरह बाँधूं
नदिया पीर बहाऊँ, रामा !

माथे की तो पढ़ न पाई
आखर भाषा समझ न आई
नियति खेले आँख मिचौनी
अँखियां रह गईं
बंधी बंधाई ।
हाथ थाम,
कर डगर सुझाए
ऐसा मीत बनाऊँ, रामा !

कभी दोपहरी झुलसी देहरी
आन मिली शीतल पुरवाई
कभी अमावस रात घनेरी
जुगनू थामे
जोत जलाई
विधना की
अनबूझ पहेली
किस विध अब सुलझाऊं, रामा!


ताल तलैया, पोखर झरने
देखें अम्बर आस लगाए
नैना पल- पल सावन ढूंढ़ें
बरसे,
मन अंगना हरियाए
धीर धरा,
पतझार बुहारी
रुत वसंत मनाऊँ, रामा !
मन की बात बताऊँ, रामा !

-शशि पाधा
(कार्यशाला-3 का नियम है कि हर सदस्य को कार्यशाला की रचनाओं पर टिप्पणी करनी होगी। टिप्पणी करते समय एक अच्छाई (जो रचना में है) और एक आवश्यकता (जो रचना में नहीं है नहीं पर होनी चाहिए) लिखनी होगी)

15 टिप्‍पणियां:

  1. इस तरह की बंदिश टिप्पणी करने पर-कि करना ही पडेगी..से बेहतर है कि विदा ले लें..अलविदा साथियों. बंधन में जीने की आदत नहीं.

    मालूम है कि टिप्पणी मॉडरेट हो जायेगी फिर भी व्यवस्थाकों तक संदेश पंहुचेगा.

    वैसे एक बात बताता चलूँ कि मेरा पिछला मॉडरेशन अनामी के आख्यान पर और ये, दोनों ब्लॉगजगत को उजागर किये जायेंगे मय सबूत कि नवगीत की पाठशाला में क्या हो रहा है.

    पाठशाला क्या इतनी संकीर्ण होती है कि अपनी बुराई सुन सुन नहीं सकती. धिक्कार है. आप मुझे तो जानते ही हैं. आई पी, हाईड करने की योग्यता रखते हुए भी हाई ड नहीं कर रहा हूँ. वैसे आप नाम दें, तो उस आई पी मास्क से टीप करके दिखा दूँ जैसे यह किया है. आपके आई पी से करुँ या पूर्णिमा जी के या फिर डॉ व्योम के..जैसा आप चाहें. स्टाईल भी वो ही रहेगा. इसमें अन्तर कर पा रहे हैं क्या?

    जवाब देंहटाएं
  2. हाथ थाम,
    कर डगर सुझाए
    ऐसा मीत बनाऊँ, रामा !
    मुझे इस गीत में ये पंक्तियां अच्‍छी लगी। वैसे मुझे यह नवगीत से अधिक भजन की श्रेणी में लगा। पतझार और रुत शब्‍द भी खटकते हैं। विषय केन्‍द्रीभूत नहीं है, फैलाव है।

    जवाब देंहटाएं
  3. मेरे विचार से यह सुंदर नवगीत है। नया छंद गढ़ने की कोशिश की गई है। सुख की कलियाँ गिरह बांधूँ नदिया पीर बहाऊँ बहुत हृदयस्पर्शी पंक्ति है। कवि/कवयित्री ने नियति को आदर पूर्वक स्वीकारते हुए सुख को संभाल रंगने और दुख को शीतलता में बहा देने के जो रूपक रचे हैं वे कोमल और कवितामय हैं। कुछ नए बिम्ब मोहते हैं- जुगनू थामे जोत जलाई, धीर धरा पतझार बुहारी। रामा का प्रयोग इसको चैती की सुंदरता प्रदान कर रहा है। पतझार शब्द की जगह अगर पतझर करना हो तो शायद ऐसे कहना ठीक लगे- धीर धरूँ पतझर बुहार दूँ।

    Anonymous के विषय में एक सुझाव है कि पाठशाला में एक दूसरे पर टिप्पणी करने का उद्देश्य दूसरों के विचार जानना है। केवल वाह वाह सुनने से प्रगति के सब रास्ते बंद हो जाते हैं। हाँ उसको स्वीकारना या अस्वीकार करना रचनाकार की इच्छा पर निर्भर करता है। रचनाकारों को भी इतना मज़बूत होना चाहिए कि वे टिप्पणियों से विचलित न हों और सार सार गह कर थोथा उड़ा दें। मुझे टिप्पणियों का यह नियम रोचक लगा। शायद किसी सुझाव से ही लिया गया है। बहुत से दूसरे लोगों को भी पसंद आ सकता है।

    जवाब देंहटाएं
  4. टिपण्णी करने से पहले स्पष्ट कर दूं कि मुझे नवगीत की तकनीकी समझ नहीं है और न मैं प्रतिभागी हूँ.जो अच्छा या बुरा लगा उसे एक साधारण पाठक की हैसियत से बयान कर रहा हूँ.
    गीत ठीक ठाक लगा.ये पंक्तियाँ मन को छू गयीं.-
    हाथ थाम,
    कर डगर सुझाए
    ऐसा मीत बनाऊँ, रामा !
    कहीं कहीं लयबद्धता में कमी नजर आई. जैसे ये पंक्तियाँ इस तरह होतीं तो ज्यादा अच्छा रहता. -
    सुख की कलियाँ
    गाँठ बाँध लूं
    गीत में लयबद्धता हेतु 'पतझार' शब्द का उपयोग ठीक लगा.

    जवाब देंहटाएं
  5. एक बहुत ही सुंदर गीत। रचनाकार को दिली बधाई और शुक्रिया भी नये बिम्बों के लिये। "कभी अमावस रात घनेरी/जुगनू थामे/जोत जलाई
    विधना की/अनबूझ पहेली/किस विध अब सुलझाऊं" या फिर "मन अंगना हरियाए
    धीर धरा/पतझार बुहारी/रुत वसंत मनाऊँ"
    मोहक पंक्तियां...अहा!
    और "रामा" के संबोधन मात्र से गीत कुछ और ही निखर उठा है।
    कमी मुझे तो नजर नहीं आ रही कहीं से\ शेष गुरूजन लोग बतायेंगे ही।

    अनाम भाई की नाराजगी जँच नहीं रही....

    जवाब देंहटाएं
  6. गीत तो ठीक ही लग रहा है। कुछ मात्र सम्बन्धी अवरोध दिख रहे हैं। हो सकता है कवि/कवयित्री की किसी विशिष्ट गायन शैली के कारण उन्हें ऐसा न प्रतीत होता हो।
    एक बात और कि यह टिप्पणी देने की बाध्यता की व्यवस्था उचित प्रतीत नहीं होती। किसी कविता पर चुप रह जाना भी एक टिप्पणी होती है। यदि कविता में प्रभाव होगा तो वह स्वयं टिप्पणियाँ आकर्षित करेगी। यह और भी विलक्षण बात है कि एक कमी को भी इंगित करना होगा।
    रचनाकार होना एक बात है और उसकी बारीकियाँ समझना अलग बात। बिना संगीत की विधिवत जानकारी के भी कई लोग अच्छे गायक होते हैं परन्तु वे संगीत के गहन विवेचन में असमर्थ होते हैं। यह भी हो सकता है कि संगीत का बहुत बड़ा मर्मज्ञ, सुकन्ठ गायक न हो। लगभग इसी तरह की तुलना रचनाकर्म में भी की जा सकती है। मेरा मानना है कि रचनाकार कम जानकार या कम पढ़ालिखा यहाँ तक कि बेपढ़ा भी हो सकता है लेकिन आलोचक को विज्ञ और सतर्क होना चाहिये। हर व्यक्ति आलोचक/समीक्षक नहीं हो सकता। यदि प्रतिबन्ध लागू रहा तो टिप्पणियों की गुणवत्ता प्रभावित होगी और रचनाकारों को सही मार्गदर्शन नहीं मिलेगा। टिप्पणी कारों से भी यही निवेदन करूँगा कि टिप्पणियाँ सुझावात्मक दें निर्णयात्मक नहीं। हो सकता है टिप्पणीकार, रचनाकार की भावभूमि, परिवेश और आंचलिकता से परिचित न हो। ऐसे में भ्रमित आलोचक भ्रामक टिप्पणियाँ कर सकता है जो विवाद का विषय बन सकती हैं। आलोचक तर्कपूर्ण सुझाव देगा तो रचनाकार में सुधार करने की प्रवित्ति उत्पन्न होगी। आलोचक का कार्य थानेदारी नहीं है कि यह स्वीकार्य है और यह अस्वीकार्य है।
    अलोचना एक गम्भीर और संवेदनशील कर्म है जो अतिरिक्त सतर्कता की अपेक्षा रखता है ऐसा मैं समझता हूँ। टिप्पणीकार किसी अटपटे प्रतीत हो रहे प्रयोग पर निर्णय देने से पूर्व यदि रचनाकार से उसके मन्तव्य के बारे में जान लें तो हो सकता है कि उन्हे किसी निर्णय पर पहुँचने में सहायता मिले।
    सारांशतः मैं चाहूँगा कि बिधेयात्मक या निशेधात्मक किसी प्रकार के प्रतिबन्ध न लगाये जाँय। रचनाकर्म को उसकी स्वाभाविक गति से पल्ल्वित होने का अवसर प्रदान करें। आँधी-तूफान बीच-बीच में आते रहते है और समय पाकर शान्त हो जाते हैं।
    सादर
    अमित

    जवाब देंहटाएं
  7. टिप्पणी करनी पड़ेगी... यह बहुत कठिन कार्य है, ख़ास करके मेरे लिये जो खुद अभी नौसिखिया है। नवगीत की तकनीक से अन्जान हूँ, फिर भी नियम तो नियम है। प्रयत्न करूंगा लेकिन अगर हर गीत पर समयाभाव और अन्जानेपन के कारण यदि टिप्पणी न दे पाऊँ तो क्षमा चाहूँगा।
    उपरोक्त गीत एक अच्छा, सुन्दर और लयबद्ध नवगीत है, बस कहीं कहीं भावनाओं के फैलाव की वजह से दिये गये शीर्षक से हट गया है।

    जवाब देंहटाएं
  8. प्रकृति से सुख दुख को जोड़कर सुन्दर रचना का जन्म हुआ है....
    झुलसी दोपहरी मे शीतल पुरवाई... अमावस मे जुगनू से जोत जलाने के भाव मे आशावाद का भाव प्रभावित करता है ...
    "विधना की
    अनबूझ पहेली
    किस विध अब सुलझाऊं, रामा!" मे निराशा का भाव खटकता है... 'किस' की जगह 'इस' करने से आशा का संचार होता...

    जवाब देंहटाएं
  9. navgeet ki pathshala ko main pichale do Mahine se dekh raha hoon. yahan maine bahut acche-acche navgeet dekhe lekin mujhe jaankar aur anubhavi kaviyo ki pratikriya se jankari hui ki navgeet main kya kami thi ya phir use aur accha navgeet kaise banaya ja sakta hai. ye navgeet ki pathshala ka blog hai. jab aap pathshala main samil ho rahe hai to gurujano ki baat ka bura nahi manna chahiye. anam se hone bali tippadi ko to jyada sahaj bhav se lena chahiye, kyoki jo anam hai vo sabke liye anam hai mera manna hai ki useke (anam) liye kaun likh raha hai isse jyada is baat par jor rahata hoga ki kaisa likha ja raha hai. aaj ke samay main sahi baat kahne wale aur sahi disha dikhane wale bahut kam milte hai.
    isliye mera us anam se is anam ka nivedan hai " ki roothiye mat, door mat jaiye. sacche guru ki tarah, sahi rah dikhaiye.
    (note: kripya ise devnagri lipi main post kare.)

    जवाब देंहटाएं
  10. नवगीत की पाठशाला के रचनाधर्मी मित्रो ! अनाम न तो नाराज है और न ही पाठशाला से कहीं दूर गया है, अनाम यहीं है, आपकी रचना के आस-पास। मुझे लगा कि शायद कई लोग अनाम की टिप्पणी को पसंद नहीं कर रहे हैं, तो फिर टिप्पणी क्यों की जाए? किसी रचनाकार को हतोत्साहित करना हमारा उद्देश्य नहीं है। रचनाकार की रचना जब किसी पत्रिका या वेब पर प्रकाशित हो जाती है तो वह रचना सार्वजनिक हो जाती है, उस पर टिप्पणी करना प्रत्येक पाठक का अधिकार हो जाता है। यदि रचना का रंग कच्चा है तो टिप्पणी के साबुन से धुलेगा ही और वह बदरंग हो जाएगी परन्तु यदि रंग पक्का है तो आलोचना का कोई भी डिटरजेंट उसके रंग की चमक को हल्का नहीं कर सकता। आप लोग अनाम की टिप्पणी के लिए लिख रहे हैं, इसके लिए आप सभी का आभार, शीघ्र ही टिप्पणी लिखूँगा। पाठशाला हम सब की है और इसका उद्देश्य मात्र है कि नवगीत को समझा जाए। यह कड़ुवा सत्य है कि अभी बहुत कम अच्छे नवगीत पाठशाला पर आ रहे हैं। परन्तु कई लोग बहुत अच्छे नवगीत लिख रहे हैं। रचनाकार अपनी रचना के प्रति इतना व्यामोह पाल ले कि वह टिप्पणीकार पर ही आक्रोश करने लगे तो यह उसके लिए शुभ संकेत नहीं है।

    जवाब देंहटाएं
  11. कल रात भी इस नवगीत पर टिप्पणी की थी, पता नहीं क्यों नहीं छप सकी। वही बात दोबारा कह रहा हूँ। गीत बहुत सुन्दर और लयबद्ध है परन्तु भावनाओं के बहाव के कारण अपनी लीक से भटक गया है।
    मुझे नवगीत की बहुत तकनीकी समझ नहीं है इसलिये अगर प्रत्येक गीत पर टिप्पणी न दे पाऊँ तो क्षमा चाहूँगा। अनाम भाई को ज़्यादा क्रोध नहीं करना चाहिये। आदमी हमेशा से नियम में ही रहने का प्रयास करता है। हर संस्था के कुछ-न-कुछ नियम तो होते ही हैं जिनका अनुसरण करना हमारा कर्तब्य हो जाता है। यह साहित्य की दुनिया है अनाम भाई, यहाँ भाषा की शुद्धता और सादगी का विशेष स्थान होता है। यहाँ माँ को माँ ही कहा जाता है मेरे बाप की जोरू नहीं कहा जाता। आशा है बुरा नहीं मानेंगे। सादर...

    जवाब देंहटाएं
  12. अच्छा नवगीत है । प्रकृति के आसपास कई पहेलियाँ सुलझाता यह गीत कथ्य और शिल्प की दृष्टि से
    उत्तम नवगीत कहा जा सकता है़। तीन स्थानों पर थोड़ी लय बाधित हो रही है उसे ठीक किया जा सकता है। यथा॰॰॰
    सुख की कलियाँ
    गिरह बाँधूं बाँधकर
    नदिया पीर बहाऊँ, रामा !
    यहाँ बाँधूं के सथान पर बाँधकर कर दें।
    नियति खेले आँख मिचौनी खेलती
    यहाँ खेले की जगह खेलती करें ।
    रुत वसंत मनाऊँ, रामा ! यहाँ रुत के स्थान पर ॠतू कर लें

    जवाब देंहटाएं
  13. bhav sunder haiN prteek bhi achhe liye haiN kuchh galtiyaN jo katare ji ne aur ajit ji ne batai haiN wo khatak rahi haiN unke sujhav aage ka rasta dikha rahe haiN

    जवाब देंहटाएं
  14. यह रचना रोचक है.
    परन्तु मुझे नवगीत की तकनीकी समझ नहीं आई अभी तक.
    गीत नवगीत का सूक्ष्म भेद समझने में समय लगेगा.
    बिम्ब,छ्न्द,अनुबंध,कथ्य,शिल्प,लय,तुक- ये सब दोनों में ही हैं. सूक्ष्म भेद जानने की आवश्यकता है.
    मुझे लगता है कि गीत हो या नवगीत हो, उनमें विषय को प्रधानता दी जानी चाहिए. अन्यथा विषय को खोजना पड़ता है

    जवाब देंहटाएं

आपकी टिप्पणियों का हार्दिक स्वागत है। कृपया देवनागरी लिपि का ही प्रयोग करें।