1 जुलाई 2009

कार्यशाला-२ कुछ बातें...

आज माह का पहला दिन...कार्यशाला की पहले नवगीत का दिन था लेकिन अभी तक बहुत कम नवगीत आए हैं। शायद इसलिए क्यों कि अभी तक अंतिम तिथि के बाद आने वाले गीत भी शामिल किए जाते रहे। यह सब देखते हुए हमने अगली कार्यशाला के नवगीतों को प्रकाशित करने की तिथि 10 जुलाई कर दी है। इस बीच सब अपने अपने नवगीत भेज दें, कुछ चर्चा और बातचीत यहाँ जारी रहेगी। कल अनाम का पत्र मिला है उसे प्रकाशित कर रहे हैं। पत्र प्रकाशित करने का यह अर्थ नहीं है कि पाठशाला उनके सभी विचारों से सहमत है। पत्र प्रकाशित करने का उद्देश्य यह है विचारों का आदान प्रदान हो और महत्वपूर्ण बातें सामने निकलकर आएँ। सभी सदस्यों से अनुरोध है कि इस पर अपने विचार व्यक्त करें-

कार्यशाला-2 पर अनाम
नवगीत की पाठशाला की दो कार्यशालाएँ पूरी हुईं। खूब आवा-जाही रही। कुछ बहुत सक्रिय रहे, कुछ सक्रिय रहे और कुछ नाम भर के लिए यहाँ आते-जाते रहे। यहाँ आने-जाने वाले प्रत्येक जीव को यह अधिकार था कि वह नवगीतों पर अपनी जुडीशियली टिप्पणी लिख सके। टिप्पणी भी खूब लिखी गईं। कुछ ने बहुत ही सारगर्भित टिप्पणी लिखी तो कुछ ने ’कवि की भावना को कहीं ठेस न लग जाए’ इस विचार से रस्म अदायगी की अथवा बिना पढ़े ही कुछ चल्ताऊ खुशामदी वाक्य उछाल दिए और अपना कर्तव्य पूरा समझ लिया। अधिकतर लोग वाह! वाह! से आगे नहीं बढ़ पाए। शायद इसलिए कि कहीं नवगीतकार नाराज न हो जाएँ और अगली बार उनके लिखे नवगीत की ऐसी तैसी न कर दें। कटारे जी ने सभी पर अपनी कटार चलाई पर मखमल के रूमाल में लपेटकर। कुछ की टिप्पणी तो अच्छी खासी मजाक-सी बनी चिपकी हुई देखी जा सकती है। जो सौ-सौ कोस तक नवगीत नहीं है, उस पर भी लिखा गया है कि ’अच्छा नवगीत है’, ’अच्छा नवगीत बन पड़ा है’ आदि आदि.....।

अरे भाई ! ये कार्यशाला के नवगीत हैं, यहाँ मुहँ देखी तारीफ नहीं चाहिए। ये कलम के सिपाही हैं जो अभी ट्रेनिंग के मैदान में जितना पसीना बहाएँगे उतना ही सफल नवगीत इनकी लेखनी से निकलेगा। कोई उदास होता है तो होने दो, बिना परिश्रम के नवगीत तो हाथ लगने से रहा।

अज्ञेय जी अक्सर कहा करते थे कि हिन्दी के नए कवियों में सबसे बड़ी कमी है कि वे प्रशंसा के बहुत भूखे होते हैं। एक दूसरे की कविता की तारीफ ऐसी करते हैं कि वेचारी कविता भी शरमा जाए परन्तु कवि फूल कर कुप्पा हा जाता है। उसे भ्रम हो जाता है कि वह तो अब बड़ा कवि बन गया है, और बेचारा जीवन भर इसी भ्रम में भटकता रहता है। ये पाठशाला भी अपना दायित्व कठोरता से निभाए तो यहाँ से कई अच्छे नवगीतकार हिन्दी साहित्य संसार को मिल सकेंगे।

मैं इस बार दो नवगीतों पर कुछ कहना चाहूँगा। निर्मला जोशी का 13 नम्बर पर प्रकाशित नवगीत अच्छा है। बहुत अच्छा और सटीक चित्रण किया है। परन्तु ’धरती शृंगार गया / झर - झर पसीने में।’ ने अटका लगा दिया। धरती का श्रृंगार गया, यहाँ तक तो बात ठीक है परन्तु धरती का शृंगार जाने का सम्बंध ’झर झर पसीने’ से क्या है भला? यदि इसका कोई गूढ़ार्थ नवगीतकार के मन में है, तो भी उसका साधारणीकरण होना चाहिए था ताकि पढ़ते-पढ़ते नवगीत के भावार्थ की गठरी से रेसे रेसे अर्थ अपने आप खुलता चला जाए। लेकिन यहाँ अर्थ नहीं खुला और अन्त में अटका (रुकावट) लग ही गया। इस अटके को निर्मला जी सुलझा लें तो ये एक श्रेष्ठ नवगीत होगा।

नम्बर 17 पर अमित का नवगीत प्रकाशित हुआ है। ’गर्मी के दिन’ खूब सारी टिप्पणियाँ हैं और इनमें ’बहुत खूब’, ’सुन्दर रचना’ आदि टिप्पणियाँ टिप्पणीकारों के दायित्व को पूरा नहीं कर रही हैं। रचनाकार को अँधेरे में रखना ठीक नहीं- ’’ पशु-पक्षी पेड़-पुष्प सब हैं बेहाल / सूरज ने बना दिया सबको कंकाल’’- पशु पक्षी पेड़ पुष्प सब गर्मी से बेहाल हैं, यहाँ तक तो ठीक पर सूरज ने सबको कंकाल कैसे बना दिया? ये बात गले नहीं उतरती। ’बेहाल’ के तुकांत के लिए शायद " कंकाल " लाया गया है पर यहाँ उसका गुणधर्म और अभिप्राय खण्डित हो रहा है। इस पर ध्यान देना होगा।
‘‘
माँ चिड़िया ..... बिन बिन’’ बीन बीन की जगह ‘बिन बिन’, हैण्ड पम्प पर कौव्वा ठोंक रहा टोंट’ इसमें जो चित्र उभरता है एकदम मौलिक है और नयापन लिए हुए भी है पर नल की " टोंटी " होती है टोंट नहीं। इसे स्वीकारा नहीं जा सकता। यहाँ अप्रचलित काव्य-दोष है।

इस कार्यशाला की सबसे खास विशेषता यह रही कि रचनाकारों के नाम रचनाओं के साथ नहीं दिए गए थे। इसलिए टिप्पणी करने की पूरी आजादी रही फिर भी एक दूसरे ने रस्मअदायगी ही अधिक की। अगली कार्यशाला में जितनी कमियाँ खोज खोज कर बताई जाएँ उतना ही इस कार्यशाला का लाभ मिलेगा रचनाकारों को। उचित होगा कि प्रत्येक सदस्य प्रत्येक नवगीत पर दो टिप्पणी अवश्य लिखें जिसमें एक पक्ष में हो और एक विपक्ष में। इससे टिप्पणी लिखने वाले को भी नवगीत को समझने में सुविधा होगी और नवगीतकार को भी अपनी कमियों का आभास हा सकेगा जिनकी वह स्वयं समीक्षा करने के बाद यदि आवश्यक लगे तो सुधार कर सकता है।

अभी अपनी बात यहीं समाप्त करता हूँ अगले चरण में कुछ और नवगीतों पर लिखूँगा।

--अनाम
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-- इस टिप्पणी के उत्तर अमित और निर्मला जोशी जी ने टिप्पणियों में लिखे हैं।

14 टिप्‍पणियां:

  1. अनाम जी की हर बात में दम है। उनकी हर बात से पूरी तरह सहमत हूँ। बातों में दम है, मगर बिना नाम के छुप कर टिप्पणी करना आसान होता है। आप भी तो सख़्त टिप्पणियाँ छ्द्मवेष में ही कर रहे हैं :-)

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  2. मैंने पूर्व में भी निवेदन किया था कि प्रतिभागियों के गीतों पर चर्चा हो। इस अनाम टिप्‍पणी से चर्चा प्रारम्‍भ हुई, धन्‍यवाद। आशा है सभी के नवगीतों पर इसी प्रकार की स्‍पष्‍ट राय प्राप्‍त होगी। तभी हम किंचित मात्र सीख सकेंगे।

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  3. बहुत सारगर्भित और साफ-साफ बातें कही हैं अनाम जी ने. मुझे भी नहीं लगता कि टिप्पणीकारों ने नाम न देने के फैसले का ज़रा भी फ़ायदा उठाया हो. हां अनाम जी मानसी जी की बात में भी दम हैं. आपसे भी निवेदन है कि अपना परिचय का कारण बताने की कृपा करें.
    पूर्णिमा जी से एक निवेदन कि कार्यशाला-3 में मेरा नाम दिखाया जा रहा है वह सही नहीं है. गीत मेरा नहीं पुष्पेन्द्र शरण पुष्प का है. इसे सही कर लें.

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  4. प्रिय अनाम जी,
    आप ने अपनी टिप्पणई में मेरे नवगीत का भी उल्लेख किया है इसलिये मुझे भी कुछ कहना पड़ रहा है। मैं स्पष्टीकरण शब्द इसलिये प्रयोग नहीं कर रहा हूँ क्योंकि आपकी टिप्पणी में कुछ ऐसे तत्व हैं जिनसे प्रतीत होता है कि आपने टिप्पणी करने से पूर्व सम्यक विचार मन्थन नहीं किया है। अतः मैं कुछ बिन्दु आपके संज्ञान में लाना चाहता हूँ।
    १- शब्द की की तीन शक्तियाँ होती हैं जिसमें से काव्य रचना में प्रायः लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग होता है। लक्षणा के अनुसार कह सकते हैं ’पूरा घर ताला बन्द करके गोल है’। इसका तत्पर्य आपको लगाना हो तो बड़ी मुश्किल हो जायेगी। घर स्वयं ताला बन्द करके गोल कैसे हो सकता है? ताला बन्द करने से गोलाई का क्या सम्बन्ध है? आदि कई प्रश्न इस वाक्य के अर्थ सौन्दर्य को नष्ट कर देंगे।
    सूरज ने सब को कंकाल बना दिया का अर्थ जीवविज्ञान की भाषा का कंकाल न होकर मात्र कृषकाय कर देंने का संकेत भर है और कहा भी जाता है कि गर्मी में प्रायः सभी प्राणी दुर्बल हो जाते हैं एक विशेष चतुष्पद को छोड़कर जिसकी तुलना प्रायः मनुष्य अपने प्रिय पात्रों से कर देता है। आपकी आपत्ति यदि यह होती कि कंकाल शब्द का प्रयोग काव्य माधुर्य की दृष्टि से अच्छा नहीं कहा जा सकता तो मुझे स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं होती परन्तु उसके पीछे आपने जो तर्क दिये हैं वो अनुचित ही नहीं वरन काव्य की समझ पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
    इसी तरह आपकी बिन-बिन के प्रयोग पर भी आपकी त्योरी चढ़ी है। काव्य में इस तरह के प्रयोग होना कोई नई बात नहीं है। छन्द के पालन के लिये इस तरह के उदाहरणों की लम्बी सूची है जिसका उल्लेख करूंगा तो उत्तर लम्बा हो जायेगा। गा़लिब का एक शेर है
    है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
    वरना क्या बात कर नहीं आती।
    यहाँ पर उन्होने बात करनी नहीं आती को संक्षिप्त कर दिया है बात कर में। यह एक उदाहरण था।
    और टोंट के मामले में तो आपने हद ही कर दी। मैने कौव्वे की टोंट(चोंच) का जिक्र किया है। नल की टोंटी का नहीं। अब आप कह सकते हैं कि चोंच का प्रयोग करना चाहिये नही तो नवगीत की शोभा नष्ट हो जायेगी क्योंकि टोंट शब्द आपकी जानकारी में नहीं है।
    आपकी बात सही है कि आलोचना होनी चाहिये। इससे कविता के स्तर में सुधार होगा। परन्तु आलोचना सुविचारित, सुचिन्तित और रचनात्मक होनी चाहिये जिससे कवि स्वयं में सुधार लाने की प्रेरणा ग्रहण कर सके। आशा करता हूँ कि जब अनाम टिप्पणियाँ प्रकाशित हो सकती हैं तो सनाम को प्रकाशित करने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिये। अनाम जी आप अपना घूँघट और लम्बा कर लें मैं पर्दानशीनो की तरफ़ यूँ भी नहीं देखता।
    शुभकामनाओं सहित
    अमित

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  5. अनाम जी पहले तो कविता इतना ध्यान से पढ़ने के लिए धन्यवाद।

    धरती शृंगार गया
    झर-झर पसीने में।
    इन दो पंक्तियों को समझना हर पुरुष के वश की बात नहीं शायद, पर जिस महिला ने कभी शृंगार किया है और जिसने भारत की गर्मी में पसीना बहाया है वह तो इन्हें अनायास ही समझ लेगी।
    साधारणीकरण का सारा प्रयत्न कवि नहीं करता कुछ सहृदयता की आवश्यकता तो पाठक में भी होती है।
    --निर्मला जोशी

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  6. अमित और निर्मला जोशी के गीतो के विषय में मेरे विचार से निर्मला जी का उत्तर स्पष्ट है। गर्मी में शृंगार बह जाना या झर जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। चोंच के लिए टोंट शब्द हो सकता है कुछ लोगों को न मालूम हो लेकिन यही आँचलिकता तो नवगीत की जान है। जब गौतम राजऋषि ने ससरती शब्द का प्रयोग किया तो वह मुझे बहुत सुंदर नहीं लगा था। पर जब उन्होंने उदाहरण देकर उसका अर्थ बताया तो मुझे इस शब्द का सौंदर्य समझ में आया। लगा कि ससरना जिस भाव को व्यक्त करता है उस भाव को कोई अन्य शब्द व्यक्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार टोंट शब्द सख्त और मज़बूत चोंच के लिए प्रयुक्त होता है जबकि चोंच शब्द कोमलता का द्योतक है।

    संजीव जी, नाम ठीक कर दिया है।

    --पूर्णिमा वर्मन

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  7. पूर्णिमा जी प्रणाम
    नाम गलत जगह सही किया है. कार्यशाला-3 की सूची में संजीव के स्थान पर पुष्पेन्द्र करना है. आपने कार्यशाला-2 की सूचे में कर दिया है. कृपया सही कर लें.
    एक निवेदन और सभी रचनाकार टिप्पणियों को सहजभाव से लें तो ज़्यादा अच्छा लगेगा.

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  8. मेरी टिप्पणी को पढ़कर दोनों नवगीतकारों ने जो प्रतिक्रया लिखी है उसका आभास मुझे पहले से ही था इसलिए मुझे कुछ भी अप्रत्याशित नहीं लगा। हाँ यदि दोनों नवगीतकार स्वयं थोड़ा-सा चुप रहते तो अन्य नवगीतकारों को कुछ लाभ होता। अपना लिखा अपने मन में ऐसा रम जाता है कि केवल और केवल वही सही लगता है। मैंने पहले ही लिखा है कि ये कार्यशाला है इसलिए यहाँ टीका टिप्पणी बहुत जरूरी हो जाती है। अमित जी ने तो अनाम की नवगीत विषयक योग्यता को तत्काल प्रभाव से ही खारिज कर दिया है इसलिए उनकी टिप्पणी पर कुछ कहना अशोभनीय होगा। अरे भाई "निरंकुशः कवयः" कहकर कवियों को व्याकरण से कुछ छूट दी गई है पर इतनी नहीं कि "बीन बीन को बिन बिन प्रयोग कर लें.........। और रही नाम की बात तो "अनाम" नाम को यदि आप खारिज कर सकते हैं तो बहुत से नाम हैं जिन्हें खारिज किया जा सकता है। अनाम ही मेरा नाम है आप यही मान लीजिए। कार्यशाला के सदस्य रचनाकारों को आम खाने से मतलब है न कि पेड़ गिनने से। मुझे जो नवगीत थोड़ा अधिक प्रभावित कर सके उन पर टिप्पणी पहले लिखी। किस किस पत्रिका में आपके नवगीत प्रकाशित हुए यदि यह भी बता सकें तो बहुत प्रसन्नता होगी। दूसरी टिप्पणी मैंने निर्मला जोशी जी के नवगीत पर की थी। उनका नवगीत बहुत ही अच्छा है, बहुत शिष्टता से मेरी टिप्पणी पर उन्होंने प्रतिक्रिया भी लिखी है, मैं भी यही चाहता था कि नवगीतकारों को उकसाकर उनसे यह लिखवा सकूँ जो उनके नवगीत में बहुत गहरा है। मेरी कोशिश सफल हुई। "धरती शृंगार गया, झर झर पसीने में" जो "गया" शब्द है उसका अर्थ निकल रहा है कि शृंगार एकदम समाप्त हो गया। इसकी जगह यदि यह होता " "धरती शृंगार झरा, झर झर पसीने में" "गया" की जगह "झरा" करके पढ़िए और फिर बताइए कि किसमें अधिक माधुर्य है, झरा, झर झर में एक आनुप्रासिक सौन्दर्य आ तारा है। और "झरा" शृंगार के शनैः शनैः झरने का बोध कराता है। मैं चाहूँगा कि जिसके नवगीतों पर टिप्पणी की जाए वे थोड़ा सा धैर्य रखें और लोगों को इस पर लिखने दें। कोई भी अच्छा नवगीत खराब से खराब टिप्पणी से भी खराब नहिं होगा इसकी चिन्ता न करें। हाँ कुछ एसे विशेष अर्थ आपके नवगीत से और निकल सकेंगे जिनके विषय में आपने भी नहीं सोचा होगा। शेष फिर !!

    -अनाम

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  9. हालांकि मैं इस पोस्ट पर पहले टिप्प्णी दे चुका हूं लेकिन आज मन फिर से कुछ कहने को हो रहा है.
    हो सकता है कुछ को ये अच्छा नहीं लगे लेकिन य्ह खतरा तो उठाना ही होगा. कार्यशाला-2 पर अनामजी ने विस्तृत टिप्पणी की वह पहले भी लगभग हर गीत पर अपनी राय प्रकट करते रहे हैं. उससे ये तो स्पष्ट है कि वे साहित्य के अच्छे जानकार हैं. सच मानिये कार्यशाला-2 पर उनकी पहली टिप्पणी में अमित जी और निर्मला जी का ज़िक्र पाकर उनके सौभाग्य से बडी ईर्ष्या और अपना गीत टिप्पणी के लायक न पाकर बहुत दुख हुआ. लेकिन उस टिप्पणी का उत्तर अमित जी ने जिस आक्रोश के साथ दिया वह बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा. एक तो अमित जी ने किसी भी गीत पर अपनी टिप्पणी नहीं दी. दूसरे अगर कोई साहस करके टिप्पणी दे रहा है तो उसके लिये ऐसी भाषा. अगर आप सर्वज्ञ हैं, साहित्य के अच्छे जानकार हैं,आलोचनाएं सह सकते हैं और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां भी कार्यशाला को नहीं दे सकते हैं तो फिर कार्यशाला में भाग लेने की क्या आवश्यकता है? कार्यशाला तो नवगीत सीखने वालों के लिये है. अगर यहां हमारी कमी नहीं बतायीं जायेंगी तो फिर क्या कवि सम्मेलन में बतायीं जायेंगी? मैं कोई विद्वान तो नहीं लेकिन साहित्य का शोधार्थी होने के नाते इतना तो जानता हूं कि यदि मेरा कोई आलोचक नहीं होगा या मुझे आलोचना के लायक नहीं समझा जाता है तो मैं साहित्य में बहुत दूर तक नहीं ज सकता. हो सकता है कि कार्यशाला में 40 सुधारात्मक टिप्पणियां आयें और उनमें 4 ही काम की हों तो 4 को मान लीजिये. किसी में हिम्मत तो है नहीं कि ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवा ले. ऐसी टिप्पणियों के लिये धन्यवाद देने के बजाय इस तरह चाकू और तमंचे निकलेंगे तो किसका भला होगा? मेरा सभी प्रतिभागियों से विनम्र निवेदन है कि "निन्दक नियरे राखिये" वाले दोहे को याद रखिये और खुशी-खुशी आलोचनाओं को ग्रहण करिये. अपने को धन्यवाद दीजिये कि आपका गीत टिप्पणी के लायक समझा गया.अनाम जी से अनुरोध कि अपनी टिप्पणी की दूसरी किस्त प्रेषित करें और अमित जी से भी अनुरोध कि कार्यशाला-2 के गीतों पर वे भी अपनी बहुमूल्य टिप्पणी दें.

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  10. सब कुछ ठीक ठाक......... बस निरंतरता बनाए रखें..

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  11. संजीव गौतम जी के विचारों से मैं पूर्णतया सहमत हूँ बस एक बात के लिए ही टिप्‍पणी कर रही हँ कि उन्‍होंने लिखा कि प्रतिभागियों को भी अपनी टिप्‍पणी देनी चाहिए थी। मेरा यह मानना रहा था कि जब हम प्रतिभागी है और कुछ सीखने का प्रयास कर रहे हैं तब कैसे दूसरों के गीतों पर टिप्‍पणी करें। जब हम भी कुछ सीख जाएंगे तो टिप्‍पणी अवश्‍य करेंगे। पाठशाला में तो विद्वान लोग ही टिप्‍पणी करें तो शायद ज्‍यादा अच्‍छा रहता है। यह विशुद्ध रूप से मेरे विचार है, मैं गलत भी हो सकती हूँ। क्षमा करेंगे।

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  12. निर्मला जोशी का मधुर गीत पढा. पसंद आया. अनाम जी को जिन पंक्तियों से शिकायत थी उनके उत्तर से दूर हो गयी होगी. आशा करता हूँ ये निर्मला जोशी भोपाल से हैं जिनकी रचनाएँ अनेकों बार मंच पर सुन चुका हूँ.

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  13. गौतम जी, आपके सुझाव बहुत अच्छे लगे। नाम संबंधी गलती को आपको पत्र देखकर डॉ.व्योम ने सुधार दिया था। इस बार आपका गीत नदारत है? जबतक आपका गीत नहीं आएगा हम कार्यशाला शुरू नहीं करने वाले हैं।

    अजित जी, आप स्वयं प्रतिष्ठित कवयित्री और विदुषी हैं। आपकी विनम्रता से प्रभावित हूँ। लेकिन यहाँ कच्चा तो कोई नहीं हैं। सब अपने अपने विषय के विशेषज्ञ हैं पर अपने को और बेहतर बनाने या एक नई विधा सीखने और नवगीत के अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ने के लिए यहाँ इकट्ठे हुए हैं। इसलिए सबको एक दूसरे के गीतों पर अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार है। कुछ टिप्पणियाँ गलत या अप्रिय लग सकती हैं पर कवि को स्पष्टीकरण का अधिकार भी है। और अन्य लोग इस विषय में क्या सोचते हैं वह लिखने का भी अधिकार सबके पास है। यह चर्चा का खुला मंच है ताकि लोग बात चीत करते हुए सीखें और आगे बढ़ें। इसलिए आप भी हर रचना पर विचार प्रकट करें तो यह सबके लिए सुखद होगा।

    हेम पांडे जी, आपने ठीक पहचाना निर्मला जी मंच की जानी मानी वरिष्ठ कवयित्री हैं और नवगीतों के क्षेत्र में प्रतिष्ठित नाम हैं। वे इस पाठशाला से जुड़ी हैं तो यह हमारा सौभाग्य है आशा है उनका यह सहयोग आगे भी बना रहेगा।

    इस पाठशाला के साथ लोकप्रिय ग़ज़लकार संजीव गौतम और गौतम राजरिशी भी जुड़े है जो बहुत ही खुशी की बात है। गौतम राजरिशी का मन कुछ ठीक नहीं था। क्या हुआ गौतम भाई आपकी रचना भी अभी तक क्यों नहीं आई है हम प्रतीक्षा में हैं।

    ---पूर्णिमा वर्मन

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  14. इस बार पाठशाला में विलंब से आया हूँ....और सबसे क्षमा चाहता हूँ। बीच में एक मित्र की शहादत और काम के अन्य सिलसिलों ने व्यस्त रखा, तो पाठशाला के कुछ महत्वपूर्ण सबकों से वंचित रहा। पूर्णिमा जी का दिल से आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे जिक्र के काबिल समझा।
    अनाम जी की टिप्पणी से बहुत कुछ सीखने कोम िला और इस संदर्भ में संजीव जी ने मेरे मन की बात कह दी है।

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