31 जुलाई 2009

१७- सुख दुख बरसे जीवन में

मौसम बरसे उपवन में
सुख-दुख बरसे जीवन में
कुदरत का ये खेल है सब
क्यों डूबे हम उलझन में
सुख-दुख बरसे जीवन में

चारो ओर हैं फैले अपने
सुख-दुख के ही गीत
दुख की चर्चा होती लेकिन
सुख न किसी का मीत
कहीं सुखों का ढेर, कहीं
दुख ही मन के आंगन में
सुख-दुख बरसे जीवन में

आस-निराश की बांह पकड़
ये जीवन चलता जाये
धूप-छांव के दो रंगों में
पल-पल रंगता जाये,
ऊँची-नीची लहरें सब
दर्द उठाये तन-मन में
सुख-दुख बरसे जीवन में

समय ने पैरों से है बांधी
सुख-दुख की पाज़ेब
दुख से फिर घबराना हमको
दे न ज़रा भी ज़ेब,
क्षणभंगुर से इस जीवन में
सुख भी होता बंधन में
सुख-दुख बरसे जीवन में

मान लिया कि जग में होती
चन्द ग़मों की मार बुरी
याद हमें वो जब हैं आते
दिल पे चलती एक छुरी,
ऐसा न कोई भी जिसके
केवल सुख हो दामन में
सुख-दुख बरसे जीवन में...


निर्मल सिद्धू

2 टिप्‍पणियां:

  1. कार्यशाला को इस बार क्या हो गया है? टिप्पणी तक का मन नहीं कर रहा. हर गीत में लगभग वही प्रतीक आशा-निराशा, धूप-छांव, अंधेरा-उजाला नये प्रतीकों का इतना अकाल. सैकडों नये प्रतीक मिल जायेंगे यदि अपने आस-पास ज़रा सा ध्यान से देखेंगे तो. बडे भाई यश मालवीय जी की दो पंक्तियां याद आ रही हैं-
    खदबदाता हुआ डामर पक रहा है.
    छटपटाती हुई सडकें बन रही हैं.
    क्या कोई इस तरह सोच सकता है?गीतकार ने कहां संवेदनाएं ढूंढ ली हैं. नवगीत के लिये यही सोच चाहिये.
    दादा कटारे जी से पूछा कि क्या नवगीत में मात्रा गिराने की छूट है तो पता नहीं क्यों उसका जवाब नहीं. इस बार क़टारे जी की टिप्पणियां ही नदारद हैं. उन्हें तो एक-एक पंक्ति को लेकर बताना चाहिये कि वहां नवगीत है तो क्यों है और नहीं है तो क्यों नहीं. कुछ लोग हिम्मतकर कुछ कहते थे तो उन्हें चुप करा दिया गया. अब क्या हो रहा है. कोई दिशा-निर्देश नहीं. कुल मिलाकर कार्यशाला-3 से मन खुश नहीं है. ऐसा लगता है कि जहां से चले थे वहीं आ गये.

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  2. ऐसा न कोई भी जिसके
    केवल सुख हो दामन में
    सुख-दुख बरसे जीवन में...
    बात सही है। बाकी नवगीत के जानकार अधिक बता सकेंगे।

    जवाब देंहटाएं

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