मृगमरीचिका ये संसार
बीहड़ बन
सुख-दुख का जाल
हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ||
जीवन-जीवन दौड़ी भागी
कैसी पीड़ा ये मन लागी
फूल-फूल से बगिया-बगिया
इक आशा में इक ठुकराऊँ
रंग-बिरंग जीवन जंजाल
सखि! मैं जीवन अटकी जाऊँ
हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ||
आड़े-तिरछे बुनकर आधे
कितने इंद्रधनुष मन काते
सुख-दुख दो हाथों में लेकर
माया डगरी चलती जाऊँ
ये नाते रिश्तों के जाल
सखि! मैं डोरी लिपटी जाऊँ
हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ॥
रोती आँखें जीवन सूना
देखे कब मन जो है दूना
मैल बहुत है पिछले द्वारे
संग बटोर सब चलती जाऊँ
पा कर भी सब मन कंगाल
सखि! किस आस में भटकी जाऊँ
हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ॥
--मानसी
सुन्दर नवगीत है जिसमे़ जीवन मे. सुख दुख की निरन्तरता पर प्रकाश डाला है.
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना. बधाई.
अच्छा गीत है। सुख-दुख के उतार-चढ़ाव से भरपूर गीत की रचनात्मकता पसन्द आई।
जवाब देंहटाएंइसके लिये रचनाकार को बधाई,
अच्छा लगा नवगीत
जवाब देंहटाएंरोती आँखें जीवन सूना
देखे कब मन जो है दूना
मैल बहुत है पिछले द्वारे
संग बटोर सब चलती जाऊँ
पा कर भी सब मन कंगाल
सखि! किस आस में भटकी जाऊँ
हाय! मैं बन-बन भटकी जाऊँ॥
यह वन्द विशेष प्रभावित करता है। परन्तु
’मन जो है दूना’ का अभिप्राय स्पष्ट नहीं हो पा रहा है
सादर